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बोध से मार पर विजय
होता है। दर्शन से समाधान होता है। अनुभव से समाधान होता है। __ सब व्याधियों की एक ही औषधि है—बुद्ध ने कहा-जागो; मेरे जैसे हो जाओ। जैसे मैं जागा, ऐसे तुम जागो। जागते ही सारे प्रश्नों का उत्तर मिल जाएगा। और क्या उत्तर हैं इन प्रश्नों के?
तो बुद्ध ने कहा : 'धर्म का दान सब दानों से बढ़कर है।' ।
धन देने से क्या होगा? धन से तुम्हें ही कुछ नहीं मिला, तो दूसरे को देने से क्या होगा? धन देने का मतलब ही यह है कि तुमने तो पाया कि कचरा है; अब तुम दूसरे पर टाल रहे हो!
धर्म के दान से। धर्म-दान क्या? पहले तो धर्म को पाओगे, तभी तो दान कर सकोगे न! जो तुम्हारे पास नहीं, उसका दान कैसे करोगे? धन हो, तो धन का दान कर सकते हो। धर्म हो, तो धर्म का दान कर सकते हो। धर्म भीतर का धन है। धर्म आत्म-धन है।
पहले धर्म को पा लो, फिर उसे बांटो। फिर जो भी धर्म के लिए प्यासा दिखे, उसमें उंडेल दो। तुम जागो और दूसरों को जगाओ।
'धर्म का दान सब दानों में श्रेष्ठ। और धर्म-रस सब रसों में प्रबल है।'
संगीत में थोड़ा सा रस है। क्यों? क्योंकि संगीत में भी थोड़ी सी तन्मयता हो जाती है। संभोग में भी थोड़ा रस है, क्योंकि संभोग में भी क्षणभर को तन्मयता हो जाती है। मगर धर्म-रस में सदा को तन्मयता हो जाती है। गए सो गए, फिर कोई लौटता नहीं। डूबे सो डूबे। एकरस हो जाते हो परमात्मा में।
संभोग में, जिससे तुम्हारा प्रेम है, क्षणभर को एकरस होते हो। फिर अलग हो गए। और फिर अलग होने की पीड़ा और भयंकर हो जाती है। संगीत थोड़ी देर को कानों को मीठा लगता है। फिर संगीत चला गया। फिर शोरगुल है जगत का। शराब पी ली; थोड़ी देर को तन्मय हो गए। फिर नशा उखड़ेगा।
धर्म ऐसा नशा है, जो एक दफे हुआ, तो फिर उखड़ता नहीं। पीया सो पीया। और धर्म ऐसा नशा है कि बेहोशी भी लाता है और होश को नष्ट नहीं करता: होश को बढ़ाता है। धर्म अदभुत नशा है; होश और बेहोशी साथ-साथ पैदा होते हैं। एक तरफ मस्ती छा जाती है और एक तरफ परम होश भी होता है।
'तो धर्म-रस सब रसों में बढ़कर, और धर्म में रति सब रतियों से बढ़कर है।'
प्रेमों में सबसे बड़ा प्रेम है, धर्म से प्रेम। रतियों में सबसे बड़ी रति है, धर्म-रति। - स्त्री के साथ थोड़ी देर खेलो, थोड़ा सुख है। पुरुष के साथ थोड़ी देर खेलो, थोड़ा सुख है-रति-क्रीड़ा। लेकिन परमात्मा के साथ खेल लो-सदा के लिए। धर्म-रति बुद्ध कह रहे हैं उसको। अस्तित्व के साथ संभोगरत हो जाओ; अस्तित्व के साथ एक हो जाओ। फिर कोई अलग न कर सकेगा। क्यों? क्योंकि अस्तित्व के साथ वस्तुतः हम एक ही हैं। हमने अलग मान लिया, वह हमारी भ्रांति है। उसी भ्रांति
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