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दर्पण बनो
यद्यपि सहारे की जरूरत कभी नहीं पड़ती।
तुम्हें बेसहारा छोड़ने में ही गुरु की कला है। अगर कोई गुरु तुम्हें सहारा सच में दे दे, तो तुम वंचित रह जाओगे। वही सहारा अटकाव हो जाएगा।
तो बुद्ध ठीक कहते हैं : स्वयं ही जानकर अब किसको गुरु कहूं? किसी ने जनाया नहीं। किसी ने सत्य दिया नहीं । सत्य भीतर आविष्कृत हुआ है; भीतर उमगा है । किसको गुरु कहूं?
और जब किसी को गुरु नहीं कह सकता, तो किसको शिष्य बनाऊं ? वह उसका अनुसंग है । जब मैं किसी को गुरु नहीं कह सकता, तो अब किसको शिष्य बनाऊं ? किसको सिखाऊं ?
जानता हूं कि सिखाने की जरूरत ही नहीं । प्रत्येक व्यक्ति सत्य को लेकर ही जन्मा है। सत्य तुम्हारा स्वभाव है। कुछ करना नहीं है; सिर्फ अपने स्वभाव को पहचानना है। और यह पहचान की क्षमता भी तुममें है । सारा आयोजन है।
तुम वीणा बजाना जानते हो। तुम्हारी अंगुलियां कुशल हैं। वीणा भी रखी है। यद्यपि संगीत पैदा नहीं हो रहा है। तुम अंगुलियां वीणा पर रख नहीं रहे। तुम अपनी कुशलता वीणा पर बरसा नहीं रहे। तुम अपनी कुशलता वीणा पर बरसाओ; वीणा तुम पर संगीत बरसा दे। सब मौजूद है।
तुम्हें भोजन बनाना आता है। आटा भी है, नमक भी है, घी भी है, दाल भी है, पानी भी है, आग भी जली रखी है, और तुम भूखे बैठे हो ! और तुम्हें भोजन बनाना भी आता है ! कुछ कमी नहीं है । सब है । जरा तालमेल बिठाना है। जरा संयोजन जमाना है। भूखे रहने की कोई जरूरत न रह जाएगी।
इसलिए बुद्ध कहते हैं : किसको सिखाऊं ? क्या सिखाऊं ? सत्य सिखाया ही नहीं जा सकता। जो सिखाया जाएगा, वह सत्य नहीं होगा। सिखाने की तो बात दूर, सत्य कहा भी नहीं जा सकता।
जो भी चीज सिखायी जाएगी, वह तुम्हारा स्वभाव नहीं है । सब सिखावन परभाव है। तुम जो भी सीखते हो, वह बाहर का है। अनसीखा भीतर पड़ा है, उसको सीखना नहीं है। उसके लिए तो सब सिखावन भूलनी है। जो-जो सीख लिया, उसे विस्मृत करना है।
असली गुरु वही, जो तुम्हें सिखाता नहीं, बल्कि तुम्हें भुलाता है। जो कहता है: भूलो। यह भी भूलो; यह भी भूलो; यह भी भूलो। यह सब कचरा है। कचरे को भूलते जाओ। यह बाहर से आया है; इसे छोड़ते जाओ; त्यागते जाओ। जब तुम्हारे पास त्यागने को कुछ भी न बचे; जब बाहर से आया हुआ सब तुमने वापस बाहर फेंक दिया; तब जो शेष रह जाएगा - धड़कता हुआ, ज्योतिर्मय - वही तुम हो; वही सत्य है
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बाहर से जो आया है, उसने तुम पर पर्तें जमा दी हैं । जैसे दर्पण पर धूल की पर्तें
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