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धर्म का सार-बांटना
था। जितना फ्रांसिस ने दिया, उतना दुनिया के करोड़ों का दान देने वालों ने भी नहीं दिया। यह सारी प्रकृति उसके दान से आह्लादित हो उठी थी। जिस वृक्ष पर फ्रांसिस ने हाथ रखकर कहा होगा : भाई!... __ऐसे ही औपचारिक नहीं। क्योंकि वृक्षों से उपचार कौन निभाता है! आदमियों में शायद तुम उपचार भी निभाते हो; किसी से मतलब हो, काम हो, तो कहते हो भाई! कहते हैं न, कि जरूरत पड़े, तो आदमी गधे को भी बाप कह देता है! मगर भीतर तो जानता ही रहता है कि है तो गधा ही; यह काम पर पिताजी कहना पड़ रहा है! जरूरत पड़ती है, तो राजनेता के भी पैर तुम छू लेते हो, उसको भी महात्मा कह देते हो। हालांकि तुम जानते हो: गधा तो गधा है! जरूरत पड़ी, तो बाप कहना पड़ रहा है। उपचार! __ लेकिन वृक्ष से तो कोई उपचार निभाना नहीं है। चांद-तारे तो कोई शिकायत करेंगे नहीं। जब फ्रांसिस ने पक्षियों को, जानवरों को, वृक्षों को भाई कहकर पुकारा, यह अंतर्तम से उठी आवाज, यह प्रार्थना बन गयी, यह दान हो गया।
तो खयाल रहे : धर्म का सार है दान। दान अर्थात देने की क्षमता। क्या दिया-इस पर जोर नहीं है। दिया—इस पर जोर है। और जिसने दिया, उसे बहुत मिला। और जिसे बहुत मिला, उसने फिर बहुत दिया। और ऐसे यह श्रृंखला बढ़ती ही चली जाती है। इसका फिर कोई अंत नहीं है। और जिसने सब दिया, उसने समग्र पा लिया। जो देकर शून्य हो गया, उस पर सारा अस्तित्व बरस उठता है; परमात्मा उसे अपना घर बना लेता है।
दान का अर्थ है : देने की क्षमता, बांटने की कला। खयाल रखनाः दान भी बेहूदा हो सकता है, अगर कला न हो। तुम इस ढंग से दे सकते हो कि जिसको तुम दो, उसको पीड़ा दे जाओ। तुमने अगर दो पैसे भिखमंगे की तरफ फेंक दिए हैं, तो तुमने दिया कम, चोट ज्यादा पहुंचायी। तुम दो पैसे देकर अपनी अमीरी दिखाए। तुमने दो पैसे क्या दिए, तुमने उस गरीब की छाती में छुरा भोंक दिया! तुमने इतनी अकड़ से दिए कि तुम्हारा दान जहर हो गया। अच्छा होता, तुमने न दिया होता। अच्छा होता, तुम मुंह फेरकर चले गए होते। अच्छा होता कि तुमने सुनी ही न होती भिखमंगे की आवाज। लेकिन यह देना, देना न हुआ। ___ अक्सर तुमने दिया है क्रोध में। अक्सर तुमने दिया है सिर्फ बचाव के लिए। भीड़-भाड़ है, बाजार है; चार लोग क्या कहेंगे कि भिखमंगा हाथ जोड़े खड़ा है, और तुम दो पैसे नहीं दे पाते! अक्सर तुमने भिखमंगे को दिया है, लेकिन दिया लोगों के कारण है, जो देख रहे हैं बाजार में। तुम्हारी प्रतिष्ठा दांव पर लगी है। तुमने अपने अहंकार को ही दिया, भिखमंगे को नहीं दिया। और देकर तुमने चाहा है कि वह धन्यवाद करे। देकर तुमने चाहा है कि तुम्हारी स्तुति करे
अगर तुम्हारे देने में कोई भी चाह है-धन्यवाद की भी चाह है-तो देना गलत
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