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दर्पण बनो
मुश्किल हो जाएगी। और फिर औरों की भी तो सोचो, जो रास्ते पर पीछे आते होंगे। तुम पत्थर ही उखाड़कर ले चले! और अगर तुम पत्थर के पास ही बैठ गए, तो तुम्हारी यात्रा कब पूरी होगी? __ गुरु को तो ऐसा ही समझो, जैसे चांद को बतायी गयी अंगुली। चांद को देखो, अंगुली को भूल जाओ। अंगुली भूल ही जानी चाहिए। इसका यह अर्थ नहीं है कि तुमने धोखा दे दिया, या दगा कर दिया। सच तो यह है कि जो अंगुली तुम्हें बिलकुल भूल जाएगी और चांद ही दिखायी पड़ता रहेगा, उस अंगुली के प्रति तुम्हारे जीवन में सदा अनुग्रह का भाव रहेगा। क्योंकि उसी ने चांद को दिखाया। और न केवल चांद को दिखाया, अपने को हटा भी लिया-चुपचाप हटा लिया। कहीं ऐसा न हो कि अंगुली के कारण बाधा बन जाए।
आंख बड़ी छोटी है। एक अंगुली भी चांद को देखने में रुकावट बन सकती है। अब मैं अगर अपनी अंगुली तुम्हारी आंख में ही रख दूं, तो तुम्हें क्या चांद दिखायी पड़ेगा? दिन में तारे नजर आने लगेंगे! _ हिमालय जैसा बड़ा पहाड़ भी सामने खड़ा हो और अंगुली कोई आंख में रख दे, तो फिर नहीं दिखायी पड़ेगा। जरा सी कंकरी आंख में पड़ जाती है, तो हिमालय छिप जाते हैं। आंख शुद्ध होनी चाहिए। इतनी शुद्ध होनी चाहिए कि उसमें गुरु की छाया भी न पड़े।
ऐसी अदभुत प्रक्रिया बुद्ध ने दी। बुद्ध को समझते समय तुम मुझे भी समझ ले सकते हो। मैं भी कहता हूं : गुरु की कोई जरूरत नहीं है। और फिर भी कहता हूं कि गुरु की जरूरत है। मैं भी कहता हूं : शिष्य बनने का कोई कारण नहीं है। और फिर भी कहता हूं: शिष्य बने बिना नहीं होगा। और मैं भी कहता हूं : सिखाने को क्या है! भूलने को है। फिर भी तुम्हें सिखाता हूं।
• दूसरा प्रश्न : पूछा है स्वामी अच्युत बोधिसत्व ने।
तेरे पास बैठकर दो घड़ी, तुझे हाले-दिल है सुना लिया मुझे अपना मान न मान तू, तुझे मैंने अपना बना लिया कई तेजगाम भटक गए, कई बर्करौ हुए लापता तेरे आस्तां पे जो रुक गए, उन्हें आकर मंजिल ने पा लिया यह नजर का अपनी कसूर है, कि हिजाबे-जलवा की है खता कोई एक किरण को तरस गया, कोई चांदनी में नहा लिया मेरे साथ होती न बेखुदी, तो भटक गया होता मैं कहीं मेरी लग्जिशों ने कदम-कदम, मुझे गुमरही से बचा लिया
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