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धम्मपद का पुनर्जन्म
वासना से भरा हुआ आदमी सदा तो अकेला है। कब साथ होता है यहां ? कब किसका साथ होता है ? साथ होकर भी कहां साथ होता है? हाथ हाथ में भी होकर कहां हाथ में होता है ? यहां कौन किसके साथ है ? यहां कोई किसी के साथ हो भी नहीं सकता। उपाय नहीं है। यहां सब अकेले हैं । वासना केवल भ्रम पैदा करती है, सपने पैदा करती है।
तुम परीशान न हो, बाबे-करम वा न करो
और कुछ देर पुकारूंगा, चला जाऊंगा।
वासना सभी को भिखमंगा बना देती है। न कभी द्वार खुलते, न कभी भिक्षापात्र भरता। वासना सभी की आंखों को आंसुओं से भर देती है । वासना सभी के हृदय में कांटे बो देती है। वासना महादुख है ।
मगर इसका यह अर्थ नहीं कि वासना का कोई उपयोग नहीं है। यही उपयोग है कि वासना तुम्हें जगाए, झंझोड़े; दुख, पीड़ा, अंधड़ उठें; और तुम चौकन्ने हो जाओ; तुम सावधान हो जाओ। वासना को देख-देखकर एक बात अगर तुम समझ लो, तो दुख का सारा सार निचोड़ लिया — कि मांगना व्यर्थ है। मांगे कुछ भी नहीं मिलता। दौड़ व्यर्थ है, दौड़कर कोई कहीं नहीं पहुंचता।
इतनी समझ आ जाए दुख में कि दौड़कर कोई कहीं नहीं पहुंचता और तुम रुक जाओ; इतनी समझ आ जाए कि मांगकर कुछ भी नहीं मिलता और तुम्हारी सब मांगें चली जाएं, तुम्हारी सब प्रार्थनाएं चली जाएं, तुम भिक्षापात्र तोड़ दो — उसी क्षण संन्यास का फूल खिल जाता है
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संन्यास का अर्थ क्या होता है? इतना ही अर्थ होता है : इस संसार में न कुछ मिलता है, न मिल सकता है। दौड़ है, आपाधापी है, खूब संघर्ष है, लेकिन संतुष्टि नहीं । जिसने यह देख लिया, जिसके भरम टूटे, जिसके सपन टूटे, जिसके ये सारे भीतर चलते हुए झूठे खयाल दुख से टकरा - टकराकर खंडित हो गए, बिखर गए, उसको बड़ा लाभ होता है। लाभ होता है कि वह अपने में थिर हो जाता है।
वासना तुम्हें अपने से बाहर ले जाती है । वासना सदा बहिर्यात्रा है । और जब वासना व्यर्थ है - ऐसा दिखायी पड़ जाता है, दुख ही दुख है...।
इसलिए बुद्ध कहते हैं कि दुख ही दुख है । इसलिए नहीं कि बुद्ध को कोई वासना की निंदा करनी है । बुद्ध क्यों निंदा करेंगे ! बुद्ध निंदा करना जानते ही नहीं । बुद्ध केवल तथ्य की घोषणा करते हैं।
आए न पिया
बैरागिन जगी रही रात,
जलाए दीया ।
बौराई पीड़ा ने कर दिए,
नीलाम
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