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एस धम्मो सनंतनो
चाहिए। सदा कुछ और चाहिए! और ऐसा नहीं कि कुछ और मिलने से तृप्ति हो जाएगी! जो भी तुम्हारे पास होगा, उसी से तृप्ति नहीं होती। जो पास हो गया, उसी से अतृप्ति हो जाती है। जो दूर है, उसमें तृप्ति दिखायी पड़ती है। दूर के ढोल सुहावने। वह सदा दूर मालूम पड़ता है सुख। जैसे-जैसे पास आते जाते हो, दुख होता जाता है। जो मुट्ठी में आ जाता है, वही व्यर्थ हो जाता है। यह तृष्णा की आदत है। जो मिल जाए, व्यर्थ; और जो नहीं मिला है, वही सार्थक।
ऐसा आदमी कैसे सुखी होगा? ऐसे आदमी ने तो दुख का बिलकुल पूरा इंतजाम कर रखा है। जब मिलेगा, तो अर्थहीन हो जाएगा; और जब तक नहीं मिला है, तब तक उसमें सुख मिलता है! जब तक नहीं मिला है, सुख कैसे मिल सकता है? सिर्फ आशा, कल्पना, सपना! और जब मिलता है, तब सब सुख समाप्त हो जाता है।
एतं दल्हं बंधनमाहु धीरा ओहारिनं सिथिलं दुप्पमुञ्च। एतम्पि छेत्त्वान परिब्बजन्ति अनपेक्खिनो कामसुखं पहाय।।
'धीरपरुष इसी को दृढ़ बंधन कहते हैं, जो शिथिल होकर भी मनुष्य को गिराता है और जिसे तोड़ना कठिन है। धीरपुरुष अपेक्षारहित होकर तथा काम-सुखों को छोड़कर इस बंधन को तोड़ते हैं और प्रव्रजित होते हैं।'
जो समझदार है, धीर है, जो बुद्धिमान है, वह इस सत्य को देख लेता है कि तृष्णा की दौड़ में सिर्फ नए-नए नर्क निर्मित होते हैं। जो धीर है, जो बुद्धिमान है, वह इस सत्य को देख लेता है कि मैं जैसा हं, जहां हूं, उसी में तृप्त हो जाऊं, तो यहीं स्वर्ग बरस जाता है।
तुम जरा प्रयोग करके देखो। ये बातें प्रयोग की हैं। तुम जो हो, जैसे हो, जहां हो, एक क्षण को समग्र स्वीकार कर लो कि इससे अन्यथा की मेरी कोई चाह नहीं। अचानक तुम पाओगे: आकाश खुल गया, बादल छंट गए। अचानक तुम पाओगे: दुख नहीं रहा। दुख हो कैसे सकता है फिर! उस संतुष्टि में दुख समाप्त हो जाता है।
स्वर्ग तुम बनाते, नर्क तुम बनाते। नर्क तुम बनाते तृष्णा से; तृष्णा से मुक्त होकर स्वर्ग बन जाता है। तुम्हारी मर्जी; तुम अगर नर्क ही चाहते हो, तो बनाते रहो, लेकिन फिर रोओ मत। फिर कहो मत कि मैं दुखी क्यों हूं! फिर तुम्हारा संकल्प है। फिर तुम्हारी स्वतंत्रता है। फिर कहो मत कि दुखी क्यों हूं!
लेकिन मजा यह है कि दुख तुम निर्मित करते हो और फिर रोते-चिल्लाते हो कि मैं दुखी क्यों हं! जैसे कि कोई और का जिम्मा है तुम्हें सुखी करने का! मंदिर में जाकर भगवान को कहते हो कि मुझे सुखी बनाओ। मैं दुखी क्यों हूं? मुझे दुखी क्यों बनाया? जैसे उसका जिम्मा है!
कोई जिम्मेवार नहीं है। बुद्ध के इस वचन को स्मरण रखना : तुम्हारे अतिरिक्त
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