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बुद्धत्व का कमल
और अंत में बुद्ध के कहने पर महासत्व मंजुश्री सभी को लेकर विमलकीर्ति के पास गए और उनके बीच अदभुत संवाद घटा। भगवान! महासत्व विमलकीर्ति की विस्मयजनक गुणवत्ता को हमें कहिए। और यह भी समझाइए कि सभी प्रमुख शिष्य और बोधिसत्व उनके पास जाने में क्यों कर झिझके और किस अदम्य साहस के वश महासत्व मंजुश्री उनके पास जा पाए?
ब ड़ी महत्वपूर्ण कथा है।
विमलकीर्ति संन्यासी नहीं था; विमलकीर्ति गृहस्थ था। विमलकीर्ति ने कभी घर नहीं छोड़ा। क्योंकि विमलकीर्ति का भी कहना यही था ः छोड़ना क्या! पकड़ना क्या! जो छोड़ता है, उसने यह बात मान ही ली कि मैंने पकड़ा था। जो त्यागता है, उसने यह बात मान ही ली कि मेरा था।
समझना। जब तुम कहते हो, मैंने धन त्याग दिया, तो तुम क्या घोषणा कर रहे हो? तुम परोक्ष से यह घोषणा कर रहे हो कि धन मेरा था। त्याग में भी घोषणा यही है कि मेरा था।
विमलकीर्ति कहता था ः वास्तविक त्याग तो वही है, जो जानता है, मेरा नहीं है तो त्यागू कैसे? पकडू कैसे? छोडूं कैसे? पकड़ना भी गया; छोड़ना भी गया। वही वास्तविक त्याग है।
इसलिए विमलकीर्ति ने कभी घर नहीं छोड़ा। पत्नी नहीं छोड़ी। बच्चे नहीं छोड़े। दुकान नहीं छोड़ी। काम नहीं छोड़ा। उसकी दृष्टि बड़ी पैनी थी। और जिन्होंने छोड़ा था, उन्हें वह झंझट में डालता था। रास्ते पर कहीं मिल जाता...। __ मौद्गल्यायनं लोगों को समझा रहा था एक रास्ते पर ः कि छोड़ो; संसार असार है। आ गया विमलकीर्ति। उसने कहाः असार है, तो छोड़ें क्यों? असार है ही—इतना जानना काफी है। जब असार को कोई छोड़ता है? जब असार ही है, तो छोड़ने को बचा क्या? ____ मौद्गल्यायन को उसने घबड़ा दिया। ऐसे उसने बुद्ध के सारे शिष्यों को परेशान कर रखा था। वह खुद भी बुद्ध का शिष्य था। लेकिन अनूठा था। और सब शिष्य संन्यस्त थे, दीक्षित हुए थे, भिक्षु थे। वह संसार में था। वह परम संन्यासी था। ___ इसलिए मैं अपने संन्यासी को संसार छोड़ने को नहीं कहता। मैं चाहता हूं : तुम विमलकीर्ति बनो। तुम जहां हो, वहीं समझो। जैसे हो, वैसे ही रहो। भीतर बोध जगे। ऊपर की क्षुद्र बातों में मत पड़ो।
पत्नी छूटे, यह सवाल नहीं है। पत्नी के प्रति मेरी पत्नी है, यह भाव छूट जाए; इतना काफी है। कौन किसका है? पत्नी तुम्हारी कैसे? तुम पत्नी के कैसे? सब मालकियत झूठी है। सब स्वामित्व झूठा है। इतना समझ आ जाए...।
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