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तृष्णा को समझो मकड़ी अपने बनाए जाले में फंस जाती है। धीरपुरुष इस स्रोत को छेदकर और सब दुखों को छोड़कर आकांक्षारहित हो प्रव्रजित होते हैं । '
दूसरा दृश्य :
राजगृह में प्रतिवर्ष एक विशेष समारोह में नटों के खेलों का आयोजन होता था । एक बार जब नटों का खेल हो रहा था, तब राजगृह नगर के श्रेष्ठी का उग्गसेन नामक पुत्र एक नट- कन्या के खेल को देखकर उस पर मोहित हो उसी से अपना विवाह कर नटों के साथ हो लिया। वह उनके साथ घूमते हुए थोड़े ही वर्षों में नट-विद्या में निपुण हो गया। फिर एक उत्सव में भाग लेने वह भी राजगृह आया। उसका खेल देखने स्वभावतः हजारों लोग इकट्ठे हुए। वह नगर के सब से बड़े सेठ का बेटा था— नगरसेठ का बेटा था ।
उस दिन जब भगवान भिक्षाटन को निकले, तो श्रेष्ठीपुत्र उग्गसेन साठ हाथ ऊंचे दो भवनों के बीच में बंधी रस्सी पर चलकर अपना खेल दिखाना शुरू करने ही वाला था। लेकिन भगवान को देखकर सभी दर्शक उग्गसेन की ओर से मुख मोड़कर भगवान को देखने लग गए! उग्गसेन उदास हो बैठ रहा।
भगवान ने उसे उदास देख महामौद्गल्यायन स्थविर से कहाः मौद्गल्यायन। उग्गसेन को कहो कि अपना खेल दिखाए। बेचारा उदास और दुखी होकर बैठ गया! फिर भगवान ने उसे प्रसन्न करने को कहा: मैं भी देखूंगा उग्गसेन ! तू खेल
दिखा।
फिर उग्गसेन खूब प्रसन्न होकर साठ हाथ ऊंची बंधी रस्सी पर स्वयं को सम्हालने के नाना प्रकार के खेल दिखाने लगा। तब शास्ता ने कहा: उग्गसेन, ये खेल अच्छे हैं। लोगों का मनोरंजन भी करेंगे। लेकिन मनोरंजन से होता क्या ! जब तक मनोभंजन न हो ! सार तो इनमें जरा भी नहीं है। मनोरंजन में ही तो जीवन व्यर्थ गए। और यह जीवन भी व्यर्थ चला जाएगा। तू तमाशा दिखाते-दिखाते तमाशे में ही समाप्त हो जाएगा ? सार इनमें जरा नहीं उग्गसेन !
जितने समय में तूने स्वयं को रस्सी पर सम्हालना सीखा, इतने समय में तो तू ध्यान पर अपने को सम्हाल लेता। और रस्सी पर सम्हलकर कहां पहुंचेगा ? चेतना में सम्हल। वह तुझे जीवन-मरण के पार ले जाता, अगर ध्यान में सम्हल जाता।
उग्रसेन बुद्धिमान व्यक्ति को समय से मुक्त हो परम सत्य में लीन होना सीखना चाहिए। तू मेरे पास आ । मैं तुझे वह परम कला और परम कीमिया सिखाऊंगा।
और तब भगवान ने यह गाथा कही :
मुञ्च पुरे मुञ्चपच्छतो मज्झे मुञ्च भवस्स पारगू। सब्बत्थ विमुत्तमानसो न पुन जतिजरं उपेहिसि । ।
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