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एस धम्मो सनंतनो
दिल जिगर में रख लिया खुद मैं हुआ शिकार क्यू यह न बता सकूँगा आपके घाट तक आ चुका हूं, क्या आपकी ओर से संन्यास रूपी नौका का सहारा पा सकूँगा?
पछा है मनहर ने। जब पूछा था, तब तक वे संन्यासी नहीं थे। अब संन्यासी हैं;
-नाव में सवार हो गए हैं। लेकिन बात ठीक कही है।
शिष्य और गुरु के बीच जो संबंध है, उसे समझाने का, कहने का कोई उपाय नहीं! इस जगत की सब से ज्यादा उलझी पहेलियों में एक है। क्यों? ___ इस जगत में,जितने और संबंध हैं-मां का, पिता का, भाई का, बहन का, पति-पत्नी का, मित्र का-वे सारे संबंध सांसारिक हैं। वे सारे संबंध पौदगलिक हैं। वे सारे संबंध माया के हैं, सपने के हैं, निद्रा के हैं।
इस जगत में एक ही किरण है, जो इस जगत की नहीं है, वह है.: गुरु-शिष्य का संबंध। इस जगत में होकर भी-घटता तो यहीं है, इसी पृथ्वी पर, इन्हीं वृक्षों के तले, इन्हीं चांद-तारों के नीचे-इस पृथ्वी पर होकर भी इस पृथ्वी का नहीं है। कुछ पार का है। जैसे अंधेरे घर में एक किरण उतर आयी हो छप्पर के छेद से। अंधेरे में है, लेकिन किरण अंधेरे की नहीं है। कहीं पार से आती है, कहीं दूर से आती है।
अगर तुम किरण का सहारा पकड़कर चल पड़ो, अगर किरण को तुम अपना यात्रा-पथ बना लो, जल्दी ही अंधेरे के बाहर हो जाओगे। जल्दी ही खोज लोगे चांद को, जहां से किरण आती है। प्रकाश के स्रोत तक पहुंच जाओगे किरण को पकड़कर।
गुरु-शिष्य का संबंध सब से अपूर्व है, विस्मयकारी है; कुछ ऐसा है, जैसा हो नहीं सकता, फिर भी होता है ! कुछ ऐसा है, जैसा होना नहीं चाहिए जीवन के हिसाब में, हिसाब के कुछ बाहर है।
मगर इससे तुम यह मत समझ लेना कि सभी शिष्यों के जीवन में ऐसा घट जाता है। शिष्य औपचारिक भी हो सकता है, तब कुछ भी नहीं घटता। शिष्य किसी गहरी वासना के कारण भी शिष्य हो सकता है, तब नहीं घटता। फिर वासना चाहे सांसारिक हो चाहे आध्यात्मिक-कुछ भेद नहीं पड़ता।
मेरे पास लोग आ जाते हैं। एक व्यक्ति ने संन्यास लिया। मैंने उनसे पूछाः किसलिए संन्यास लेते हो? उन्होंने कहाः नौकरी खोज रहा हूं बहुत दिन से, मिलती नहीं। सोचा, संन्यासी होने के बाद आपकी कृपा हो जाएगी, तो नौकरी मिल जाएगी। ___ अब इस संन्यास में क्या संबंध बनेगा? कैसे बनेगा? यह तो संबंध टूट गया! बनने की बात कहां है? यह तो बनने के पहले टूट गया! यह तो बात ही गलत हो गयी।
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