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दोनों में आकाश-पाताल का अन्तर है । मित्र दृष्टि से होने वाली विचार-गोष्ठी में एक-दूसरे को समझने का सद्भावना पूर्वक प्रयत्न होता है । जब कि शत्रु दृष्टि की गोष्ठी में एक-दूसरे को समझने-समझाने का तो कोई अर्थ ही नहीं होता, अपितु एक-दूसरे की उठा-पटकी में ही सारी शक्ति खर्च हो जाती है, और परिणाम सिवा विग्रह, कलह, कटुता, घृणा, द्वेष एवं वैर विरोध के कुछ भी नहीं निकलता । पहले की अपेक्षा भी कटुता और अधिक बढ़ती है, गन्दगी और अधिक फैलती है । सिवा कीचड़ उछालने के और कोई काम नहीं होता, इस प्रकार की पूर्वाग्रह-ग्रस्त शत्रु-बुद्धि की चर्चाओं में। और आप जानते हैं, कीचड़ उछालने का क्या परिणाम आता है ?
मित्र दृष्टि की वादगोष्ठी में एक-दूसरे पर अर्थात् एक-दूसरे के विचारों पर प्रहार होते हैं, तर्क-वितर्क होते हैं पर वे तर्क-वितर्क के प्रहार ऐसे ही होते हैं, जैसे एक-दूसरे पर कोमल एवं सुगन्धित पुष्पों के प्रहार हों । परस्पर फूल की हर मार में दोनों ओर महक फैलती है । अतः इस पुष्प प्रहारोपम विचार-गोष्ठी में सही निर्णय निकलते हैं | वादगोष्ठी में सम्मिलित होते समय जो प्रसन्न हों और समाप्ति पर उठते हुए भी जो प्रसन्न हों, एक-दूसरे को साधुवाद एवं धन्यवाद दे रहे हों, वे लोग बाहर में तन के मानव हैं, तो अन्दर में मन के देव भी हैं । भले ही निर्णय किसी के पक्ष में हो, संभव है, कोई एक निश्चित निर्णय न भी हो पाए, परन्तु परस्पर की मधुरता, एक-दूसरे का . आदर-सत्कार समाप्त नहीं होता ।
__इसके विपरीत शत्रु बुद्धि में पहले से ही अपने-अपने पूर्वाग्रह होते हैं, वे दुराग्रह के रूप के लिए होते हैं । उनके तर्क-वितर्क के प्रहार नुकीले पत्थरों के प्रहार होते हैं, जो एक-दूसरे को लहूलुहान ही करते हैं । यह गोष्ठी केवल कण्टक गोष्ठी होती है, इसमें से किसी अच्छे परिणाम की अपेक्षा नहीं की जा सकती । ये लोग तनाव के वातावरण में लड़ते-झगड़ते ही गोष्ठी में बैठते हैं और लड़ते-झगड़ते ही उठते हैं । इसीलिए महावीर और बुद्ध, और अन्य महत्तम पुरुष मैत्री पर बल देते हैं, पूर्वाग्रह से मुक्त होकर मात्र सत्यानुलक्षी प्रज्ञा के आधार पर विचार-चर्चा करने की प्रेरणा देते हैं । इसी सन्दर्भ में पुराकाल में कभी कहा गया था-वादे-वादे जायते तत्त्वबोधः ।"
इस प्रकार की गोष्ठी का एक सर्वोत्तम उदाहरण है-श्रमण भगवान
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