________________
प्रस्तुत में तथागत बुद्ध की एक बात ध्यान में रखने जैसी है, जो उन्होंने कोशलदेश की विहार-चर्या में अपने प्रमुख शिष्य काश्यप से कही थी। तथागत ने कहा था- " जो श्रमण या ब्राह्मण निपुण हैं, पण्डित हैं, शास्त्रार्थ में विजेता हैं, बाल की खाल निकालने वाले अपनी तर्क-बुद्धि से दूसरे के मत को भिन्न एवं खण्डित करते दिखते हैं, वे भी अनेक बातों में मुझसे सहमत हैं और मैं भी उनसे सहमत हूँ। पर, कुछ बातों में मैं उनसे सहमत नहीं भी हूँ। कुछ बातें ऐसी हैं, जिन्हें वे ठीक नहीं कहते हैं, उन्हें हम भी ठीक कहते हैं, और कुछ बातें ऐसी भी हैं, जिन्हें वे ठीक नहीं कहते, उन्हें हम ठीक कहते हैं । अत: उनके पास जाकर मैं ऐसा कहता हूँ-"आवुसो, जिन बातों में हम लोग सहमत नहीं हैं, उनको अभी जाने दें । जिनमें सहमत हैं, उन्हें ही हम एक दूसरे से पूछे, विचार-विमर्श करें।"
भगवान बुद्ध का यह बोध सुत्तपिटक के दीघनिकाय में, महासिंहनाद सुत्त में उपलब्ध है । काश्यप ने तप के बारे में भी पूछा है, जिसके विरोध में बुद्ध प्राय: सर्वत: सुप्रसिद्ध हैं । बुद्ध ने अमुक तपस्याओं की तथा ठीक न लमने वाले अमुक आचार-विचारों की आलोचना की है, परन्तु साथ ही यह भी कहा है कि “ सभी तपस्याएँ निन्दनीय नहीं हैं । सच्चे धर्माचरण से, फिर भले ही उसका आचरण करने वाला वह कोई भी हो, मैं सहमत हूँ ।"
इसी सन्दर्भ में उन्होंने यह भी कहा है-" जब भिक्षु वैर-विरोध और द्रोह से रहित होकर मैत्री भावना करता है, चित्त-मलों के क्षय होने से निर्मल चित्त की और प्रज्ञा की मुक्ति को इसी जन्म में स्वयं जानकर साक्षात्कार प्राप्त कर विहार करता है, यथार्थ में वही भिक्षु श्रमण-ब्राह्मण की यथार्थ संज्ञा से विभूषित है ।
उक्त संवाद महत्त्वपूर्ण है । बुद्ध मैत्री भावना पर बल देते हैं और जिन बातों में हम अधिकांशतः सहमत हैं, उन्हीं पर विचार-चर्चा करने की प्रेरणा देते हैं । वस्तुत: यही समन्वय का मार्ग है । इसी में से सहज एकत्व प्रतिफलित होता है ।
___ आप विचार कीजिए, जब आप लोग किसी बात पर विचार-विनिमय करने बैठते हैं, तब मित्रों की भान्ति चर्चा करने बैठते हैं, या शत्रुओं की भांति |
(२७२)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org