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विचार गोष्ठी : कौन, कैसी ?
प्रत्येक मानव के अपने-अपने गुण कर्म हैं, अपने-अपने भाव हैं । प्रकृति की एकरूपता भाग्येन ही कहीं प्राप्त हो तो हो, नहीं तो नहीं ही है। बात यह है कि मानव का अथ और इति केवल इसी जन्म से ही सम्बन्धित नहीं है । उसके जीवन का अधिकांश पूर्व जन्मों से ही निर्मित होता आया है | अतः मतिभेद और तदनुसार अमुक रूप में विचार-भेद और व्यवहार-भेद रहता ही है।
एक ही देश है, एक ही जाति, एक ही समाज है, एक ही परिवार है, यहाँ तक कि एक ही माता-पिता का रक्त सहोदर बन्धुओं में प्रवाहित हैं । फिर भी विचार मिलते नहीं हैं, फलस्वरूप परस्पर संघर्ष होते हैं, कटुता बढ़ती है, घृणा फैलती है और अनन्तर हिंसात्मक द्वन्द्व भी आ उपस्थित हो जाते हैं ।
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प्रश्न है, इस स्थिति में क्या किया जाए, कौन-सी नीति-रीति अपनाई बात यह है कि मानव की कुछ ऐसी आग्रह बुद्धि है कि वह जितना बल मतभेदों को देता है, उतना सहमत सम्मतियों को नहीं देता। स्पष्ट है, जहाँ परस्पर मतभेद होते हैं, वहाँ कुछ-न-कुछ सहमति भी तो होती है । यदि मतभेदों की अधिक चर्चा न करके जहाँ जितने अंश में विचार मिलते हैं, वहाँ उस पर ही अधिक ध्यान केन्द्रित रखें, तो संघर्षों का समाधान हो सकता है । धीरे धीरे कटुता कम होगी, मधुरता विस्तार पाएगी, दूरी कम होगी और निकटता अधिकाधिक निकट ही आती जाएगी । एक-दो बार सहमति का स्नेहभरा वातावरण बना कि फिर एक-दूसरे को समझने की भावना और बुद्धि बल पकड़ने लगेगी। मतभेदों पर ही अधिक ध्यान रखने से हम एक दूसरे को सही रूप में समझ नहीं पाते। और यही एक वह बौद्धिक दोष है, जो कौरव और पाण्डवों को परस्पर लड़ाता है, और महाभारत जैसे रक्तपाती युद्धों को जन्म देता है ।
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