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आकाश में उड़ते अथवा वृक्ष पर आनन्द से बैठे विहंग को बाण के शिल्प से तू मत मार |
पुत्र, पक्षी गगन में उड़ते हैं तथा गगन में ही अधर में किसी वृक्ष पर अपना घर बनाते हैं । पुत्र, वे वृक्ष पर बैठे वृक्ष का पालन ही करते हैं ।
वे मधुर गायन करते हुए लोक को मधुर बनाते हैं । सुन्दर रंग तथा मधुर कूजन से भी वे लोक को सुन्दर बनाते हैं ।
उनमें भी पुत्र, कोई अपने माता-पिता को पोसते हैं, बेटे-बेटी को पोसते हैं और पत्नी को भी पोसते हैं ।
उनमें कोई माँ एक पुत्र वाली है | उसी पुत्र के आश्रय में रहती है | उसकी वही एकमात्र गति है । अत्यन्त की जरा से वह विवश भी है ।
पुत्र, उस माता का सुत, भूख की मारी के लिए आहार, प्यासी के लिए पानी लाकर उसे घोंसले में ही देता है ।
सूखे कडे के समान चिपके पेट से भी दूनी काँपती वह माँ अपने पुत्र की राह जोहती खड़ी है । उसके लिए बड़ी मेहनत से आहार ढूँढ़ कर, वह चोंच में ले जल्दी-जल्दी माँ के पास आता है ।
पुत्र, तू ने जो उसे मारा, तो बुढ़िया क्या करेगी ? वह माता क्या खाएगी, क्या पिएगी ? पुत्र, कौन उसे खिलाएगा ? कौन उसे पिलाएगा? कौन उसे आश्वासन देगा ? वह तो एक ही पुत्र वाली है ।
पुत्र, तू पत्थर का नहीं है और न तू मिट्टी का है, न तू काठ का है तथा न तू निर्मितक ही है ।
वे चिड़ियों के मासूम बच्चे माँ के अभाव में ठीक तरह मुँह से चूं चूं भी न कर सके, घोंसले के भीतर ही नष्ट हो गए ।
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