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22 | भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ (कर्नाटक)
प्रसिद्ध भारतीय इतिहासज्ञ डॉ. अनन्त सदाशिव अल्तेकर ने अपनी पुस्तक 'राष्ट्रकूट एण्ड देअर टाइम्स' में लिखा है कि सम्राट् अमोघवर्ष के शासनकाल में जैनधर्म एक राष्ट्रधर्म या राज्यधर्म (State religion) हो गया था और उसकी दो-तिहाई प्रजा जैनधर्म का पालन करती थी। उनके बड़े-बड़े पदाधिकारी भी जैन थे। उन्होंने यह भी लिखा है कि जैनियों की अहिंसा के कारण भारत विदेशियों से हारा यह कहना गलत है । (सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य का भी उदाहरण हमारे सामने है।) डॉ. ज्योति प्रसाद जैन ने लिखा है कि "प्रो० रामकृष्ण भण्डारकर के मतानुसार, राष्ट्र कट नरेशों में अमोघवर्ष जैनधर्म का महान संरक्षक था। यह बात सत्य प्रतीत होती है कि उसने स्वयं जैनधर्म धारण किया था।"
सम्राट अमोघवर्ष के महासेनापति परम जिनभक्त बंकेयरस ने कर्नाटक में बंकापुर नामक एक नगर बसाया जो कर्नाटक के एक प्रसिद्ध जैन केन्द्र के रूप में प्रसिद्ध हुआ और आज भी विद्यमान है ।
कृष्णराज द्वितीय (878-914 ई.) सम्राट् अमोघवर्ष का उत्तराधिकारी हुआ । 'उत्तरपुराण' के रचयिता आचार्य गुणभद्र उसके विद्यागुरु थे। उसी के शासन-काल में आचार्य लोकसेन ने 'महापुराण' (आचार्य जिनसेन के आदिपुराण और आचार्य गुणभद्र के उत्तरपुराण) का पूजोत्सव बंकापुर में किया था। आज इस नगरी में एक भी जैन परिवार नहीं है, ऐसी सूचना है। पूजोत्सव के समय इस नरेश का प्रतिनिधि शासक लोकादित्य वहाँ राज्य करता था। इस राष्ट्रकूट शासक ने भी मूलगण्ड, बदनिके आदि के अनेक जैन मन्दिरों के लिए दान दिए थे। स्वगं राजा और उसकी पट्टरानी जैनधर्म के प्रति श्रद्धालु थे। उसके सामन्तों, व्यापारियों ने भी जिनालय बनवाये थे।
इन्द्र तृतीय (914-922 ई.) भी अपने पूर्वजों की भाँति जिनभक्त था। उसने चन्दनपुरिपत्तन की बसदि और बड़नगरपत्तन के जैन मन्दिरों के लिए दान दिए थे और भगवान शान्तिनाथ का पाषाणनिर्मित सुन्दर पाद-पीठ भी बनवाया था। अपने राज्याभिषेक के समय उसने पहले से चले आए दानों की पुष्टि की थी तथा अनेक धर्मगुरुओं, देवालयों के लिए चार सौ गांव दान किए थे।
कृष्ण तृतीय (939-967 ई.) इस वंश का सबसे अन्तिम महान् नरेश था । वह भी जैनधर्म का पोषक था और उसने जैनाचार्य वादिषंगल भट्ट का बड़ा सम्मान किया था। ये आचार्य गंगनरेश मारसिंह के भी गुरु थे। इस शासक ने कन्नड़ महाकवि पोन्न को 'उभयभाषाचक्रवर्ती' की उपाधि से सम्मानित किया था। ये वही कवि पोन्न हैं जिन्होंने कन्नड़ में 'शान्तिपुराण' और 'जिनाक्षरमाले' की रचना की है । उसके मन्त्री भरत और उसके पुत्र नन्न ने अपभ्रंश भाषा में रचित 'महापुराण' के महाकवि पुष्पदन्त को आश्रय दिया था। कवि ने लिखा है कि नन्न जिनेन्द्र की पूजा और मुनियों को दान देने में आनन्द का अनुभव करते थे। कवि पुष्पदन्त ब्राह्मण थे किन्तु मुनि के उपदेश से जैन हो गए थे। उन्होंने सल्लेखनाविधि से शरीर त्यागा था।
खोट्रिग नित्यवर्ष (967-972 ई.) ने शान्तिनाथ के मित्य अभिषेक के लिए पाषाण की सुन्दर चौकी समर्पित की थी ऐसा दानवलपाडु के एक शिलालेख से ज्ञात होता है। उसी के समय में 971 ई. में राजरानी आर्यिका पम्बब्बे ने केशलोंच कर आर्यिका दीक्षा ली थी और तीस वर्ष तपस्या कर समाधिमरण किया था।
गोमटेश्वर महामूर्ति के प्रतिष्ठापक वीरमार्तण्ड चामुण्डराय एवं गंगनरेश मारसिंह जब अन्य स्थानों पर युद्धों में उलझे हुए थे तब मालका के परमार सिपक ने मान्यखेट पर आक्रमण किया जिसमें खोट्रिग मारा गया। उसके पुत्र को भी मारकर चालुक्य तैलप ने मान्यखेट पर अधिकार कर लिया।