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20 / भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ (कर्नाटक)
और इस नरेश ने उन्हें जयपत्र प्रदान कर 'जगदेकमल्लवादी' की उपाधि से विभूषित किया था। इन्हीं सूरि ने 'पार्श्वचरित' और 'यशोधरचरित' की रचना की थी ।
जयसिंह के बाद सोमेश्वर प्रथम (1042-68 ई.) ने शासन किया। कोगलि से प्राप्त एक शिलालेख में उसे स्वाद्वाद मत का अनुयायी बताया गया है। उसने इस स्थान के जिनालय के लिए भूमि का दान भी किया था। उसकी महारानी केतलदेवी ने भी पोन्नवाढ के त्रिभुवनतिलक जिनालय के लिए महासेन मुनि को पर्याप्त दान दिया था। एक शिलालेख से ज्ञात होता है कि सोमेश्वर ने तुंगभद्रा नदी में जलसमाधि ले ली थी।
सोमेश्वर द्वितीय (1068-1076 ई.) भी जिनभक्त था जब वह बंकापुर में था तब उसने अपने पादपद्मवोपजीवी चालुक्य उदयादित्य की प्रेरणा से बन्दलिके की शान्तिनाथ बसदि का जीर्णोद्धार कराके एक नयी प्रतिमा स्थापित की थी। अपने अन्तिम वर्ष में उसने गुडिगेरे के श्रीमद् भुवनैकमल्ल शान्तिनाथ देव नामक जैन मन्दिर को 'सर्वनमस्य' दान के रूप में भूमिदान किया था।
विक्रमादित्य पष्ठ त्रिभुवनमल्ल साहसतुंग (1076-1128 ई.) इस वंश का अन्तिम नरेश था। कुछ विद्वानों के अनुसार, . उसने जैनाचार्य वासवचन्द्र को 'बालसरस्वती' की उपाधि से सम्मानित किया था । गद्दी पर बैठने से पहले ही उसने बल्लियगांव में 'चालुक्यगंगपेम्र्म्मानडि जिनालय, नामक एक मन्दिर बनवाया था और देव पूजा, मुनियों के आहार आदि के लिए एक गाँव दान में दिया था। एक शिलालेख से ज्ञात होता है कि उसने हुनसि हदलगे में पद्मावती पार्श्वनाथ बसदि का निर्माण कराया था। इसके अतिरिक्त अनेक स्थानों पर मन्दिर बनवाए तथा चोलों द्वारा नष्ट किए गए मन्दिरों का जीर्णोद्वार भी कराया था। उसके गुरु आचार्य अर्हनन्दि थे। उसकी रानी जक्कलदेवी भी परम जिनभक्ता थी ।
उपर्युक्त चालुक्यनरेश के उत्तराधिकारी कमजोर सिद्ध हुए। अन्तिम नरेश संभवतः नम्मंडितैलप (1151-56 ई.) था जिसे परास्त कर कल्याणी पर कलचुरि वंश का शासन स्थापित हो गया । इस वंश का परिचय आगे दिया जाएगा ।
राष्ट्रकूट वंश
इस वंश का प्रारम्भिक शासन क्षेत्र मुख्यतः महाराष्ट्र प्रदेश था किन्तु उसके एक राजा यन्तिवर्मन् ने चालुक्यों को कमजोर जान आठवीं शती के मध्य में ( 752 ई. में) कर्नाटक प्रदेश पर भी अधिकार कर लिया था । कुछ विद्वानों का मत है कि उसने प्रसिद्ध जैनाचार्य अकलंक का अपने दरबार में सम्मान किया था । इसका आधार श्रवणबेलगोल का एक शिलालेख है जिसमें कहा गया है कि अकलंक ने साहसतुंग को अपनी विद्वत्ता से प्रभावित किया था । साहसतुंग दन्तिवर्मन् की ही एक उपाधि थी ।
दन्तिवर्मन् के बाद कृष्ण प्रथम अकालवर्ष शुभतुंग (757-773 ई.) राजा हुआ। उसी के समय में एलोरा के सुप्रसिद्ध मन्दिरों का निर्माण हुआ जिनमें यहाँ के प्रसिद्ध जैन गुहा-मन्दिर भी हैं। उसने चालुक्यों के सारे प्रदेशों को अपने अधीन कर लिया। उसने आचार्य परवादिमल्ल को भी सम्मानित किया था। इस नरेश की परम्परा में ध्रुव-धारावर्ष निरुपम नामक शासक हुआ जिसने 779 से 793 ई. तक राज्य किया । उसकी पट्टरानी बेगि के चालुक्यनरेश की पुत्री थी और जिनभवता थी। डॉ० ज्योतिप्रसाद जैन के अनुसार, अपभ्रंश भाषा के जैन महाकवि स्वयम्भू ने अपने रामायण, हरिवंश, नागकुमारचरित, स्वयम्भूछन्द आदि महान ग्रन्थों की रचना, इसी नरेश के आश्रय में, उसी की राजधानी में रहकर की थी। कवि ने अपने काव्यों में ध्रुवराय धरलक्ष्य नाम से इस आश्रयदाता का उल्लेख किया है। पुन्नाटसंघी आचार्य जिनसेन ने 783 ई.