Book Title: Bharat ke Digambar Jain Tirth Part 5
Author(s): Rajmal Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha

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Page 22
________________ 18 | भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ (कर्नाटक) था। उसने तोल्ल विषय (ज़िला) के जिनालय, श्रीपुर के पार्श्व जिनालय और उसके पास के लोकतिलक जिनमन्दिर को दान दिया था। आचार्य विद्यानन्द ने 'श्रीपुर-पार्श्वनाथ-स्तोत्र' की रचना भी श्रीपुर में इसी नरेश के सामने की थी ऐसी अनुश्रुति है । शिवकुमार द्वितीय संगोत (776-815 ई ) को अपने जीवन में युद्ध और बन्दीगृह का दुःख भोगना पड़ा फिर भी उसने जैनधर्म की उन्नति के लिए कार्य किया। उसने श्रवणबेलगोल की चन्द्रगिरि पहाड़ी पर 'शिवमारन बसदि' का निर्माण कराया था, ऐसा वहाँ से प्राप्त एक लेख से ज्ञात होता है। आचार्य विद्यानन्द उसके भी गुरु थे। राचमल्ल सत्यवाक्य प्रथम (815-853 ई.) ने अपनी राजनीतिक स्थिति ठीक की। किन्तु उसने धर्म के लिए भी कार्य किया था। उसने चित्तर तालुक में वल्लमलै पर्वत पर एक गुहा-मन्दिर भी बनवाया था। सम्भवत: उसी के आचार्य गुरु आर्यनन्दि ने प्रसिद्ध 'ज्वालामालिनी कल्प' की रचना की थी। सत्यवाक्य के उत्तराधिकारी एरेयगंग नीतिमार्ग (853-870 ई.) को कुडलूर के दानपत्र में 'परमपूज्य अर्हद्भट्टारक के चरण-कमलों का भ्रमर के कहा गया है । इस राजा ने समाधिमरण किया था। राचमल्ल सत्यवाक्य द्वितीय (870-907 ई.) ने पेन्ने कडंग नामक स्थान पर सत्यवाक्य जिनालय का निर्माण कराया था और बिलियूर (बेलूर) क्षेत्र के बारह गाँव दान में दिए थे। नीतिमार्ग द्वितीय (907-917 ई.) ने मुडहल्लि और तोरमबु के जैनमन्दिरों को दान दिया था। विमलचन्द्राचार्य उसके गुरु थे। गंगनरेश नीतिमार्ग के बाद, बुतुग द्वितीय तथा मरुलदेव नामक दो राजा हुए। ये दोनों भी परम जिनभक्त थे। शिलालेखों में उनके दान आदि का उल्लेख है। मारसिंह (961-974 ई.) नामक गंगरेश जैनधर्म का महान् अनुयायी था। इस नरेश की स्मृति एक स्मारक-स्तम्भ के रूप में श्रवणबेलगोल की चन्द्रगिरि पर के मन्दिर-समूह के परकोटे में प्रवेश करते ही उस स्तम्भ पर आलेख के रूप में सुरक्षित है। मारसिंह ने अपना अन्तिम समय जानकर अपने गुरु अजितसेन भट्टारक के समीप तीन दिन का सल्लेखना व्रत धारण कर बंकापुर में अपना शरीर त्यागा था । उसने अनेक जैनमन्दिरों का निर्माण कराया था। वह जितना धार्मिक था उतना ही शूर-वीर भी था। उसने गुर्जर देश, मालवा, विन्ध्यप्रदेश, बनवासि आदि प्रदेशों को जीता था तथा 'गंगसिंह', 'गंगवज्र' जैसी उपधियों के साथही-साथ 'धर्म-महाराजाधिराज' की उपाधि ग्रहण की थी। वह स्वयं विद्वान था और विद्वानों एवं आचार्यों का आदर करता था। _ राचमल्ल सत्यवाक्य चतुर्थ (974 ई. से 984 ई.)-इस शासक ने अपने राज्य के प्रथम वर्ष में ही पेग्गूर ग्राम की बसदि के लिए इसी नाम का गाँव दान में दिया और पहले के दानों की पुष्टि की थी। राचमल्ल का नाम श्रवणबेलगोल की गोम्मटेश्वर महामूर्ति के कारण भी इतिहास प्रसिद्ध हो गया है। इसी राजा के मन्त्री एवं सेनापति चामुण्डराय ने गोम्मटेश्वर की मूर्ति का निर्माण कराया था। राजा ने उनके पराक्रम और धार्मिक वृत्ति आदि गुणों से प्रसन्न होकर उन्हें 'राय' (राजा) की उपाधि से सम्मानित किया था। उपर्युक्त नरेश के बाद, यह गंग साम्राज्य छिन्न-भिन्न होने लगा। किन्तु जो भी उत्तराधिकारी हुए वे जैनधर्म के अनुयायी बने रहे। रक्कसगंग ने अपनी राजधानी तलकाड़ में एक जैन मन्दिर बनवाया था और विविध दान दिए थे।

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