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16 | भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ (कर्नाटक)
अशोक के उत्तराधिकारी सभी मौर्य राजा जैन थे। अतः मौर्य राजाओं के शासनकाल में कर्नाटक में जैन धर्म का प्रचार-प्रसार चन्द्र गुप्त-भद्रबाहु परम्परा के कारण भी काफी रहा । सातवाहन-वंश
मौर्य वंश का शासन समाप्त होने के बाद, कर्नाटक में पैठन (प्राचीन नाम प्रतिष्ठानपुर, महाराष्ट्र) के सातवाहन राजाओं का शासन रहा । इस वंश ने ईसा पूर्व तीसरी सदी से ईसा की तीसरी शताब्दी अर्थात् लगभग 600 वर्षों तक राज्य किया। थे तो ये ब्राह्मण किन्तु इस वंश के भी कुछ राजा जैन हुए हैं । उन सबमें शालिवाहन या 'हाल' का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है । इस राजा द्वारा रचित प्राकृत ग्रन्थ 'गाथा सप्तशती' पर जैन विचारों का प्रभाव है। इस वंश से सम्बन्धित कुछ स्थानों का पता गुलबर्गा जिले में चला है। स्वयं हाल का दावा था कि वह 'कुन्तलजनपदेश्वर' है। इसके समय में प्राकृत भाषा की भी उन्नति हुई। कर्नाटक में प्राकृत के प्रसार का श्रेय मौर्य और सातवाहन वंश को है ।
कदम्ब-वंश
सातवाहन वंश के बाद कर्नाटक में दो नये राजवंशों का उदय हुआ। एक तो था कदम्ब वंश 300 ई. से 500 ई.) जिसकी राजधानी क्रमशःकरहद (करहाटक), वैजयन्ती (वनवासी) रहीं । इतिहास में ये वैजयन्ती के कदम्ब नाम से प्रसिद्ध हैं। यह वंश भी ब्राह्मण धर्मानुयायी था तथापि कुछ राजा जैन धर्म के प्रति अत्यन्त उदार या जैन धर्मावलम्बी थे । इस वंश का दूसरा राजा शिवकोटि प्रसिद्ध जैनाचार्य समन्तभद्र स्वामी से जैन धर्म में दीक्षित हो गया था। कदम्बवंशी राजा काकुत्स्थवर्मन् का लगभग 400 ई. का एक ताम्रलेख हलसी (कर्नाटक) से प्राप्त हुआ है, जिसके अनुसार उसने अपनी राजधानी पलासिका (कर्नाटक) के जिनालय को एक गाँव दान में दिया था। लेख में उसने जिनेन्द्र की जय' की है और ऋषभदेव को नमस्कार किया है।
काकुत्स्थवर्मन् के पुत्र शान्तिवर्मा ने भी अर्हन्तदेव के अभिषेक आदि के लिए दान दिया था और एक जिनालय भी पलासिका में बनवाकर श्रुतकीति को दान कर दिया था । उसके पुत्र मृगेशवर्मन् (450-478 ई.) ने भी कालबंग नामक एक गाँव के तीन भाग कर एक भाग अर्हन्महाजिनेन्द्र के लिए, दूसरा श्वेताम्बर संघ के लिए और तीसर! भाग दिगम्बर श्रमण (निर्ग्रन्थ) के उपयोग के लिए दान में दिया था। उसने अर्हन्तदेव के अभिषेक आदि के लिए भूमि आदि दान की थी।
मगेशवर्मन के बाद रविवर्मन (478-520 ई.) ने जैनधर्म के लिए बहुत कुछ किया । अपने पूर्वजों के दान की उसने पुष्टि की, अष्टाह्निका में प्रति वर्ष पूजन के लिए पुरखेटक गाँव दान किया, राजधानी में नित्य पूजा की व्यवस्था की तथा जैन गुरुओं का सम्मान किया। उसने ऐसी भी व्यवस्था की कि चातुर्मास में मुनियों के आहार में बाधा न आये तथा कातिकी में नन्दीश्वर विधान हो ।
हरिवर्मन् कदम्ब (520-540 ई०) ने भी अष्टाह्निका तथा संघ को भोजन आदि के लिए कर्चक संघ के वारिषेणाचार्य को एक गाँव दान में दिया था। उसने अहिरिष्टि नामक श्रमण-संघ को मरदे नामक गाँव का दान भी किया था।
कदम्बों के दान आदि पर विचार कर पुरातत्त्वविद् श्री टी. एन. रामचन्द्रन ने लिखा है, "कर्नाटक में बनवासि के कदम्ब शासक यद्यपि हिन्दू थे तथापि उनकी बहुत-सी प्रजा के जैन होने के कारण वे भी यथाक्रम जैनधर्म के अनुकूल थे।" (अनेकान्त से)