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हो। ऐसा नहीं है कि स्वर्णमृग अब दिखाई न पड़ेंगे; अब भी दिखाई पड़ेंगे। सुबह की धूप में उनका स्वर्ण चमकेगा। उनका बुलावा अब भी आता रहेगा लेकिन अब तुम जानते हो, एक बात निश्चित हो गई कि संसार कल्पना मात्र है।
जब भी किसी नये सांचे में हम अपने को ढाल रहे हैं सोना-मढ़े दांत के नीचे जैसे कीड़े चाल रहे हैं
गंगा-जमनी चमक दांत की सिरज रही उन्मुक्त ठहाका ईर्ष्या की चंचल आंखों में काजल-सा है चिह्न धुआं का विज्ञापन परिचय के सिगरेटों के दौर उछाल रहे हैं
ये सारे संदर्भ स्वयं में अर्थहीन हो गये जतन के जैसे रत्नजड़ी तलवारें शयनकक्ष में राजभवन के हीन ग्रंथियों के विषरस को कंचन के घट पाल रहे हैं
अपने को अभिव्यक्त न कर पाने का दर्द और बढ़ जाता जब कोई मुसकान व्यथा की सोने का पानी चढ़ जाता राजा के लक्षण हों जिसमें, हम ऐसे कंगाल रहे हैं
राजा के लक्षण हों जिसमें, हम ऐसे कंगाल रहे हैं लक्षण तो राजा के हैं, भीख मांग रहे हैं। भिक्षापात्र हाथ में लिये खड़े हैं सम्राट। राम सोने के मृगों में भटक गये हैं और गंवा रहे हैं अपनी सीता को, अपनी आत्मा को।
इतना ही ज्ञानी को हो जाता है। बस इतनी ही घटना घटती है-छोटी कहो, बड़ी कहो, इतनी ही घटना घटती है कि वासना मात्र, कामना मात्र मेरी ही कल्पना का जाल है, ऐसा निश्चय हो जाता है। ऐसा निश्चय होते ही अब न कोई समाधि की जरूरत है, न कोई मुमुक्षा की जरूरत है, न कोई चित्त की तरंगों को शांत करने की। अब चित्तवृत्ति-निरोध नहीं करना है। हो गया निरोध अपने से। मूल को हटा दिया। आंधी को हटा दिया।
और खयाल रखना, आंधी दिखाई नहीं पड़ती, तरंगें दिखाई पड़ती हैं। जो दिखाई पड़ता है उससे लड़ने का मन होता है। जो दिखाई नहीं पड़ता उसकी तो याद ही नहीं आती। इसलिए अष्टावक्र पतंजलि से गहरे जाते हैं। पतंजलि की बात सीधी-साफ है। लहरें दिखाई पड़ रही हैं चित्त की, इनको शांत करो। यम से, नियम से, आसन से, धारणा से, ध्यान से, समाधि से इन्हें शांत करो। इनके शांत हो जाने से कुछ होगा। योग का मार्ग है चित्त के साथ संघर्ष का। __पतंजलि पूरे होते हैं समाधि पर; और अष्टावक्र की यात्रा ही शुरू होती है समाधि को छोड़ने से। जहां अंत आता है पतंजलि का वहीं प्रारंभ है अष्टावक्र का। अष्टावक्र आखिरी वक्तव्य हैं। इससे ऊपर कोई वक्तव्य कभी दिया नहीं गया। यह इस जगत की पाठशाला में आखिरी पाठ है। और जो अष्टावक्र को समझ ले, उसे फिर कुछ समझने को शेष नहीं रह जाता। उसने सब समझ लिया। और
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अष्टावक्र: महागीता भाग-5