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लेकिन अंधेरा हो तो तलवार काम करे। तलवार घूम जायेगी, अंधेरा नहीं कटेगा। जो है ही नहीं उसे काटोगे कैसे? अंधेरे के साथ एक ही काम किया जा सकता है : रोशनी जलाकर देखो। रोशनी जलाकर देखा, तुम पाओगे अंधेरा है ही नहीं, न कभी था। रोशनी का अभाव अंधेरा है।।
ध्यान का अभाव अहंकार है। इसलिए तुम अहंकार से मत लड़ो, तुम ध्यान को जलाओ। तुम ध्यान को जगाओ। तुम थोड़े शांत बैठकर देखने की क्षमता जुटाओ, दर्शन की पात्रता बनाओ। और तुम एक दिन पाओगे, अहंकार नहीं है। तब तुम हंसोगे। अभी अहंकार अट्टहास कर रहा है, तब तुम हंसोगे कि अच्छा पागल था मैं भी। उससे लड़ता था, जो नहीं है।
चौथा प्रश्नः जिस आकाश का अथक वर्णन आप बार-बार करते हैं उसी आकाश के साथ बार-बार घुल-मिलकर एक होने के बाद भी तृप्ति क्यों नहीं मिलती? बाह्य जगत में तो हर तरह की तृप्ति है, हर बात की तृप्ति, लेकिन |जी वन के संक्रांति-क्षण में, जब तुम अंतस में एक अतृप्ति हर क्षण है कि कुछ । ॥ बाहर से भीतर की तरफ मुड़ते हो तो छूटा-छूटा है, कुछ और है जो अभी जाना न ऐसी घटना घटती है। वह जो बाहर की अतृप्ति जा सका। कुछ और आगे...कुछ और आगे थी वह भीतर संलग्न हो जाती है। पहले धन था, की प्यास बढ़ती ही जाती है। जितना ही और चाहिए था। पद था, और बड़ा चाहिए था। आपका प्रसाद पाता हूं उतनी ही प्यास बढ़ती मकान था, महल बनाना था। तुम्हारी अतृप्ति जाती है।
बाहर लगी थी। अब तुमने बाहर से मन मोड़ा तो
बाहर तो तृप्ति हो गई। खयाल करो, पहले भीतर कोई अतृप्ति न थी, भीतर तृप्ति थी, बाहर अतृप्ति थी। अब तुमने संयोजन बदल दिया। तुमने भीतर की तरफ मन मोड़ा। तुमने कहा, भीतर जो है उसे जानना। प्रभु को पहचानना, आत्मा को खोजना, सत्य के दर्शन करने हैं, मोक्ष पाना। तुमने अतृप्ति भीतर की तरफ मोड़ ली तो तृप्ति बाहर चली गई। वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
जैसे सिक्के को हाथ में रखा था, ऊपर सिक्के का पहला पहलू था, समझो कि सम्राट की तस्वीर थी, और पीछे दूसरा पहलू था। अब तुमने सिक्का उलट लिया। तस्वीर उस तरफ चली गई सिक्के का उल्टा हिस्सा आंख के सामने आ गया। तृप्ति-अतृप्ति एक सिक्के के दो पहलू हैं।
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अष्टावक्र: महागीता भाग-5