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मन को जाना नहीं, मन के संबंध में जानकारी कर ली है। तो शायद दूसरे को सलाह भी दे देते हैं। लेकिन दूसरों को दी गई सलाह अपने भी काम नहीं पड़ती। यह भी तुम स्मरण रखना कि मनोवैज्ञानिक के धंधे में लोग दोगुनी आत्महत्यायें करते हैं।
ये तथ्य घबड़ानेवाले हैं। फिल्म अभिनेता आत्महत्या करते हैं, राजनेता आत्महत्या करते हैं, कवि, लेखक आत्महत्या करते हैं, दार्शनिक आत्महत्या करते हैं, मनोवैज्ञानिक दोगुनी आत्महत्या करते हैं । मनोवैज्ञानिक को तो आत्महत्या करनी ही नहीं चाहिए। जिसने अपने मन को समझ लिया उसके लिए आत्महत्या जैसी रुग्ण दशा घटेगी? असंभव । पर ऐसा होता नहीं ।
एक मनोवैज्ञानिक अपने मरीज से बोला कि तुम, ठीक किया, आ गये। अगर तुम दस मिनट और न आते तो मैं मनोविश्लेषण तुम्हारे बिना ही शुरू करनेवाला था। ऐसे मनोवैज्ञानिक हैं।
एक मनोवैज्ञानिक अपने मरीज की बातें सुन रहा था। मरीज ने कहा कि मुझे ऐसा वहम हो गया है कि मेरे ऊपर कीड़े-मकोड़े चलते रहते हैं। जानता हूं कि यह भ्रम है, लेकिन दिन भर मुझे यह खयाल बना रहता है कि यह गया, यह चढ़ा, सिर पर जा रहा है, पैर में जा रहा है, कपड़े में घुस गया, और खड़े होकर उसने अपने कपड़े झटकारे । मनोवैज्ञानिक ने कहा, ठहर । इतने जोर से मत झटकार, कहीं मुझ पर न गिर जायें ।
जिसे हम मनोवैज्ञानिक कहते हैं, वह वहीं खड़ा है जहां रुग्ण व्यक्ति खड़े हैं। भेद अगर कुछ है तो जानकारी का है। भेद अगर कुछ है, अंतरात्मा का नहीं है। मनोवैज्ञानिक ने मन के संबंध में अध्ययन किया है, मन के संबंध में अभी जागरूक नहीं हुआ।
इसलिए हम सदगुरुओं को मनोवैज्ञानिक नहीं कहते ।
और भी कुछ बात खयाल में लेने की है। दूसरी बात : मनोवैज्ञानिक का काम है कि जो असमायोजित हो गये हैं, मैल एडजेस्टेड हो गये हैं, जो जीवन की धारा में पिछड़ गये हैं, जो किसी तरह रुग्ण हो गये हैं, उन्हें सुसमायोजित करे, एडजेस्ट कर दे। फिर से जीवन की धारा का अंग बना दे। जो लड़ गये, पिछड़ गये, उन्हें जीवन के साथ चला दे । रुग्ण को सामान्य बना दे ।
सदगुरु का काम रुग्ण की तरफ नहीं है। सदगुरु का काम है, स्वस्थ को सहायता देना । मनोवैज्ञानिक का काम है, अस्वस्थ को सहायता देना। वह जो अस्वस्थ है, उसे इस योग्य बना देना कि दफ्तर जा सके, फैक्टरी जा सके, काम कर सके, पत्नी-बच्चों की देखभाल कर सके, बात खतम हो गई।
सदगुरु का काम है, जिसे अपना पता नहीं है उसे अपना पता बता दे । जिसे जीवन के आत्यंतिक स्त्रोत का कोई अनुभव नहीं है उसे उसका स्वाद लगा दे, परमात्मा से मिला दे। वह जो जीवन का परम सत्य है उससे संबंध जुड़ा दे |
मनोवैज्ञानिक तुम्हें समाज का अंग बनाता है। सदगुरु तुम्हें सत्य का अंग बनाता है।
सोचना; समाज तो खुद ही रुग्ण है। इसके अंग बनकर भी तुम स्वस्थ थोड़े ही हो सकोगे ! यह समाज तो बिलकुल रुग्ण है। यह हो सकता है कि जिनको तुम पागल कहते हो उनका रोग थोड़ा ज्यादा है और जिनको तुम पागल नहीं कहते उनका रोग थोड़ा कम है। मात्रा का भेद हो सकता है, परिमाण का अंतर हो सकता है, लेकिन कोई गुणात्मक भेद नहीं है। ऐसा हो सकता है, तुम निन्यानबे डिग्री
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अष्टावक्र: महागीता भाग-5