Book Title: Ashtavakra Mahagita Part 05
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 410
________________ लेकिन ना है जिसे मौत न छीन सके। कुछ ऐसा पा लेना है जो अमृत हो। इसलिए यहां हूं सब, इससे कुछ भेद नहीं पड़ता । यह जो जनक ने कहा : महल में हूं महल मुझमें नहीं है; संसार में हूं, संसार मुझमें नहीं है, यह ज्ञानी का परम लक्षण है। वह कर्म करते हुए भी किसी बात में लिप्त नहीं होता । लिप्त न होने की प्रक्रिया है, साक्षी होना । लिप्त न होने की प्रक्रिया है, निस्तर्षमानसः । मन के पार हो जाना। जैसे ही तुम मन के पार हुए, एकरस हुए। मन में अनेक रस हैं, मन के पार एकरस । क्योंकि मन अनेक है इसलिए अनेक रस हैं। तुम्हारे भीतर एक मन थोड़े ही है, जैसा तुम सोचते हो। महावीर ने कहा है, मनुष्य बहुचित्तवान है । एक चित्त नहीं है मनुष्य के भीतर, बहुत चित्त हैं। क्षण-क्षण बदल रहे हैं चित्त । सुबह कुछ, दोपहर कुछ, सांझ कुछ। चित्त तो बदलता ही रहता है। इतने चित्त हैं। आधुनिक मनोविज्ञान कहता है, मनुष्य पोलीसाइकिक है। वह ठीक महावीर का शब्द है। पोलीसाइकिक का अर्थ होता है, बहुचित्तवान । बहुत चित्त हैं। जिफ कहता था, तुम भीड़ हो, एक नहीं । सुबह बड़ें प्रसन्न थे, तब तुम्हारे पास एक चित्त था। फिर जरा-सी बात में खिन्न हो गये और तुम्हारे पास दूसरा चित्त हो गया। फिर कोई पत्र आ गया मित्र का, बड़े खुश हो गये। तीसरा चित्त हो गया। पत्र खोला, मित्र ने कुछ ऐसी बात लिख दी, फिर खिन्न हो गये; फिर दूसरा चित्त हो गया। चित्त चौबीस घंटे बदल रहा है। तो चित्त के साथ एक रस तो कैसे उपलब्ध होगा? एक रस तो उसी के साथ हो सकता है, जो एक है। और एक तुम्हारे भीतर साक्षी है। उस एक को जानकर ही जीवन में एकरसता पैदा होती है। और एकरस आनंद का दूसरा नाम है। 'सर्वदा आकाशवत निर्विकल्प ज्ञानी को कहां संसार है, कहां आभास है, कहां साध्य है, कहां साधन है ?' क्व संसारः क्व चाभासः क्व साध्यं क्व च साधनम् । आकाशस्येव धीरस्य निर्विकल्पस्येव सर्वदा ।। वह जो अपने भीतर आकाश की तरह साक्षीभाव में निर्विकल्प होकर बैठ गया है उसके लिए फिर कोई संसार नहीं है। संसार है मन और चेतना का जोड़। संसार है साक्षी का मन के साथ तादात्म्य । जिसका मन के साथ तादात्म्य टूट गया उसके लिए फिर कोई संसार नहीं । संसार है भ्रांति मन की; मन के महलों में भटक जाना । वह दीया बुझ गया साक्षी का तो फिर मन के महल में तुम भटक जाओगे । दीया जलता रहे तो मन के महल में न भटक पाओगे । इतनी-सी बात है। बस इतनी-सी ही बात है सार की, समस्त शास्त्रों में। फिर कहां साध्य है, कहां साधन है ? जिसको साक्षी मिल गया उसके लिए फिर कोई साध्य नहीं, कोई साधन नहीं । न उसे कुछ विधि साधनी है, न कोई योग, जप-तप; न उसे कहीं जाना है, कोई मोक्ष, कोई स्वर्ग, कोई परमात्मा । न ही उसे कहीं जाना, न ही उसे कुछ करना । पहुंच गया। साक्षी में पहुंच गये तो मुक्त हो गये। साक्षी में पहुंच गये तो पा लिया फलों का फल । भीतर ही जाना है। अपने में ही आना है। 396 अष्टावक्र: महागीता भाग-5

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