Book Title: Ashtavakra Mahagita Part 05
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 409
________________ कि कहीं तलवार भ्रांति से भी समझ ले कि सो गया और टपक पड़े तो जान गई। सुबह जब सम्राट ने पूछा तो वह तो आधा हो गया था सूखकर, कि कैसी रही रात ? बिस्तर ठीक था ? उसने कहा, कहां की बातें कर रहे हो ! कैसा बिस्तर ? हम तो अपने झोपड़े में जहां जंगल में पड़े रहते थे वहीं सुखद था। ये तो बड़ी झंझटों की बातें हैं। रात एक दीया पकड़ा दिया कि अगर बुझ तो खो जाओ। अब यह तलवार लटका दी । रात भर सो भी न सके, क्योंकि अगर यह झपकी आ जाये... उठ उठ कर बैठ जाता था रात में। क्योंकि जरा ही डर लगे कि झपकी आ रही है कि तलवार टूट जाये। कच्चे धागे में लटकी है। गरीब आदमी हूं, कहां मुझे फंसा दिया! मुझे बाहर निकल जाने दो। मुझे कोई सत्संग नहीं करना । सम्राट ने कहा, अब तुम आ ही गये हो तो भोजन तो करके जाओ। सत्संग भोजन के बाद होगा । लेकिन एक बात तुम्हें और बता दूं, कि तुम्हारे गुरु का संदेश आया है कि अगर सत्संग में तुम्हें सत्य का बोध न हो सके तो जान से हाथ बैठोगे। शाम को सूली लगवा देंगे। सत्संग में बोध होना ही चाहिए। उसने कहा, यह क्या मामला है ? अब सत्संग में बोध होना ही चाहिए यह भी कोई मजबूरी है ? हो गया तो हो गया, नहीं हुआ तो नहीं हुआ। यह मामला...। तुम्हें राजाओं-महाराजाओं का हिसाब नहीं मालूम। तुम्हारे गुरु की आज्ञा ठीक, नहीं हुआ बोध तो शाम को सूली लग जायेगी। अब वह भोजन करने बैठा। बड़ा सुस्वादु भोजन है, सब है, मगर कहां स्वाद? अब यह घबड़ाहट कि तीस साल गुरु के पास रहे तब बोध नहीं हुआ, इसके पास एक सत्संग में बोध होगा कैसे ? किसी तरह भोजन कर लिया। सम्राट ने पूछा, स्वाद कैसा - भोजन ठीक-ठाक ? उसने कहा, आप छोड़ो। किसी तरह यहां से बचकर निकल जायें, बस इतनी ही प्रार्थना है। अब सत्संग हमें करना ही नहीं है। । हो गया बोध तो सम्राट ने कहा, बस इतना ही सत्संग है कि जैसे रात तुम दीया लेकर घूमे और बुझने का डर था, तो महल का सुख न भोग पाये, ऐसा ही मैं जानता हूं कि यह दीया तो बुझेगा, यह जीवन का दीया बुझेगा; यह बुझने ही वाला है। रात दीये के बुझने से तुम भटक जाते। और यह जीवन का दीया तो बुझने ही वाला है। और फिर मौत के अंधकार में भटकन हो जाएगी। इसके पहले कि दीया बुझे, जीवन को समझ लेना जरूरी है। मैं हूं महल में, महल मुझमें नहीं है। रात देखा, तलवार लटकी थी तो तुम सो न पाये । और तलवार प्रतिपल लटकी है। तुम पर ही लटकी नहीं, हरेक पर लटकी है। मौत हरेक पर लटकी है। और किसी भी दिन, कच्चा धागा है, किसी भी क्षण टूट सकता है। और मौत कभी भी घट सकती है। जहां मौत इतनी सुगमता से घट सकती है वहां कौन उलझेगा राग-रंग में ? बैठता हूं राग-रंग में; उलझता नहीं हूं । अब तुमने इतना सुंदर भोजन किया लेकिन तुम्हें स्वाद भी न आया। ऐसा ही मुझे भी । यह सब चल रहा है, लेकिन इसका कुछ स्वाद नहीं है। मैं अपने भीतर जागा हूं। मैं अपने भीतर के दीये को सहा हूं। मैं मौत की तलवार को लटकी देख रहा हूं। फांसी होने को है । यह जीवन का पाठ अगर न सीखा, अगर इस सत्संग का लाभ न लिया तो मौत तो आने को है। मौत के पहले कुछ ऐसा पा मन का निस्तरण 395

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