Book Title: Ashtavakra Mahagita Part 05
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 411
________________ मैंने सुना है कि किसी गांव में एक फकीर घूमा करता था । उसकी सफेद लंबी दाढ़ी थी और हाथ में एक मोटा डंडा । चीथड़ों में लिपटा उसका ढीला-ढीला और झुर्रियों से भरा बुढ़ापे का शरीर । अपने साथ एक गठरी लिए रहता था सदा । और गठरी पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिख रखा था : 'माया' । वह बार-बार उस गठरी को खोलता भी था । उसमें उसने बड़े जतन से रंगीन रद्दी कागज लपेटकर रख छोड़े थे। कहीं मिल जाते रास्ते पर तो कागजों को इकट्ठा कर लेता। अपनी माया की गठरी में रख लेता । जिस गली से निकलता उसमें रंगीन कागज दिखता तो बड़ी सावधानी से उठा लेता । सिकुड़नों पर हाथ फेरता, उनकी गड्डी बनाकर, जैसे कोई नोटों की गड्डी बनाता है, अपनी माया की गठरी में रख लेता। उसकी गठरी रोज बड़ी होती जाती थी । बूढ़ा हो जा रहा था और गठरी बड़ी होती जाती थी । लोग उसे समझाते कि पागल, यह कचरा क्यों ढोता है? वह हंसता और कहता कि जो खुद पागल हैं वे दूसरों को पागल बता रहे हैं। कभी-कभी किसी दरवाजे पर बैठ जाता और कागजों को दिखाकर कहता, ये मेरे प्राण हैं। ये खो जायें तो मैं एक क्षण जी न सकूंगा। ये खो जायें तो मेरा दिवाला निकल जाएगा। ये चोरी चले जायें मैं आत्महत्या कर लूंगा। कभी कहता ये मेरे रुपये हैं, यह मेरा धन है। इनसे मैं अपने गांव के गिरते हुए किले का पुनः निर्माण कराऊंगा। कभी अपनी सफेद दाढ़ी पर हाथ फेरकर स्वाभिमान से कहता, उस किले पर हमारा झंडा फहरायेगा और मैं राजा बनूंगा। और कभी कहता कि इनको नोट ही मत समझो, इनकी ही मैं नावें बनाऊंगा। इन्हीं नावों में बैठकर उस पार जाऊंगा। और लोग हंसते। और बच्चे हंसते और बूढ़े भी हंसते । और जब भी कोई जोर से हंसता तो वह कहता, चुप रहो । पागल हो और दूसरों को पागल समझते हो । तभी गांव में एक ज्ञानी का आगमन हुआ। और उस ज्ञानी ने गांव के लोगों से कहा, इसको पागल मत समझो और इसकी हंसी मत उड़ाओ। इसकी पूजा करो नासमझो ! क्योंकि यह जो गठरी ढो रहा है, तुम्हारे लिए ढो रहा है। ऐसे ही कागज की गठरियां तुम ढो रहे हो। यह तुम्हारी मूढ़ता को प्रगट करने के लिए इतना श्रम उठा रहा है। इसकी गठरी पर इसने 'माया' लिख रख छोड़ा है। कागज, कूड़ा-कचरा भरा है। तुम क्या लिए घूम रहे हो ? तुम भी सोचते हो कि महल बनायेंगे, उस पर झंडा फहरायेंगे। नाव बनायेंगे, उस पार जायेंगे। सिकंदर बनेंगे कि नेपोलियन । सारे संसार को जीत लेंगे। बड़े किले बनायेंगे कि मौत भी प्रवेश न कर सकेगी। और जब यह फकीर समझाने लगा लोगों को तो वह बूढ़ा भिखमंगा हंसने लगा और उसने कहा कि मत समझाओ। ये खाक समझेंगे! ये कुछ भी न समझेंगे। मैं वर्षों से समझाने की कोशिश कर रहा हूं। ये सुनते नहीं । ये मेरी गठरी देखते हैं, अपनी गठरी नहीं देखते। ये मेरे रंगीन कागजों को रंगीन कागज समझते हैं और जिन नोटों को इन्होंने तिजोड़ियों में भर रखा है उन्हें असली धन समझते हैं। मुझे कहते हैं पागल, खुद पागल हैं। यह पृथ्वी बड़ा पागलखाना है। इसमें से जागो। इसमें से जागो, इसमें से न जागे तो बार-बार मौत आयेगी और बार-बार तुम वापिस इसी पागलखाने में फेंक दिये जाओगे। फिर-फिर जन्म ! इसीलिए तो पूरब के मनीषी एक ही चिंतना करते रहे हैं सदियों से-आवागमन से कैसे छुटकारा हो ? मन का निस्तरण 397

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