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कैसे मिटे जन्म? कैसे मिटे मौत ?
मिटने का एक ही उपाय है। तुम्हारे भीतर कुछ ऐसा है जिसका न कभी जन्म हुआ और न कभी मृत्यु होती है। तुम्हारे भीतर अजन्मा और अमृतस्वरूप कुछ पड़ा है। वही तुम्हारा हीरा है; उसे खोज लो। वही तुम्हारा धन ।
और बहुत दूर नहीं पड़ा है। जैसे शरीर के पीछे मन है, और ठीक मन के पीछे साक्षी है। इंच भर की दूरी नहीं है। जरा भीतर सरको । जरा-सा भीतर सरको, और तुम उसे पा लोगे जिसे पाने के लिए म से कोशिश कर रहे हो। लेकिन गलत स्थान पर खोज रहे हो इसलिए उपलब्ध नहीं कर पाते हो।
यह साक्षी आकाशवत है। जैसे आकाश की कोई सीमा नहीं, ऐसे ही साक्षी की कोई सीमा नहीं । और जैसे आकाश पर कभी बादल घिर जाते हैं तो आकाश खो जाता है, ऐसे ही साक्षी पर जब मन घिर जाता है— मन के बादल, विचार के बादल - तो साक्षी खो जाता है। लेकिन वस्तुतः खोता नहीं । जब वर्षा में घने बादल घिरे होते हैं तब भी आकाश खोता थोड़े ही, सिर्फ दिखाई नहीं पड़ता है। ओझल हो जाता है। आंख से ओझल हो जाता है। फिर बादल आते, चले जाते, आकाश फिर प्रगट जाता है।
जिसको तुम विचार कहते हो वे तुम्हारे चैतन्य के आकाश पर घिरे बादल हैं। उनसे तुम जरा अपने को अलग कर लो, निस्तरण कर लो अपना और तुम अचानक पाओगे, उसे पा लिया जिसे कभी खोया ही न था । उसे पा लिया जो खोया ही नहीं जा सकता। और वही पाने योग्य है, जो खोयां नहीं जा सकता। जो खो जायेगा, जो खो सकता है, उसे पा पा कर भी क्या करोगे ? वह खो ही जायेगा । वह फिर-फिर खो जायेगा ।
'वही कर्मफल को त्यागनेवाला पूर्णानंदस्वरूप ज्ञानी जय को प्राप्त होता है जिसकी सहज समाधि अविच्छिन्न रूप में वर्तती है ।'
स जयत्यर्थसंन्यासी पूर्णस्वरसविग्रहः ।
अकृत्रिमोऽनवच्छिन्ने समाधिर्यस्य वर्तते।।
समझो ।
स जयति अर्थसंन्यासी... ।
जिसने जीवन में से अर्थ की अपनी खोज छोड़ दी। जो कहता है अर्थ परमात्मा का, अंश का क्या कोई अर्थ होता है? अर्थ तो पूर्ण का होता है।
समझो, यह मेरा हाथ उठा तुम्हारे सामने। यह हाथ अगर मुझसे तोड़ लो तो भी हो सकता है इसी मुद्रा में हो, लेकिन तब इसमें कोई अर्थ न होगा। मुर्दा हाथ की कोई मुद्रा होती है? मैं अभी तुम्हें देख रहा हूं, मेरी आंख में झांको। मैं मर जाऊं, मेरे भीतर जो छिपा है वह विदा हो जाये, फिर भी यह आंख तुम्हारी तरफ इसी तरह देखती रहे, लेकिन इसमें फिर कुछ अर्थ न होगा। देखनेवाला न रहा तो आंख में क्या अर्थ होगा? हाथ उठानेवाला न रहा तो उठे हुए हाथ में क्या अर्थ होगा ?
अर्थपूर्ण में होता, अंश में नहीं होता। और हम सब इस विराट अस्तित्व के, पूर्ण परमात्मा के, परात्पर ब्रह्म के अंश हैं। हममें अर्थ नहीं हो सकता, अर्थ तो परमात्मा में है। जब तक तुम अपना अर्थ, निजी अर्थ खोज रहे हो तब तक तुम पागल हो ।
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मेरा क्या ?
अष्टावक्र: महागीता भाग-5