Book Title: Ashtavakra Mahagita Part 05
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 407
________________ ल पर हंसकर अटक तो शूल को रोकर झटक मत गोपथिक, तुझ पर यहां अधिकार सबका है बराबर अदा यह फूल की छूकर उगलिया रूठ जाना नेह है यह शूल का चुभ उम्र छालों की बढ़ाना श्किलें कहते जिन्हें हम राह की आशीष हैं वे और ठोकर नाम है बेहोश पग को होश आना क ही केवल नहीं है, प्यार के रिश्ते हजारों सलिए हर अश्रु को उपहार सबका है बराबर ल पर हंसकर अटक तो शूल को रोकर झटक मत - पथिक, तुझ पर यहां अधिकार सबका है बराबर सुख है, दुख है। जीवन है, मृत्यु है। मित्र हैं, शत्रु हैं। दिन है, रात है। सबका अधिकार बराबर। न तुम मांगो सुख, न तुम मांगो कि दुख न हो। तुम मांगो ही मत। जो आ जाये, तुम समरस साक्षी रहो। धन्य है वही दशा जो सब भावों में एकरस है; जिसे कुछ भी कंपित नहीं करता; जो निष्कंप है; जो अडोल अपने केंद्र पर थिर है। इस शब्द को याद रखना : निस्तर्षमानसः। मन के पार जाना, उन्मन होना। जिसको झेन फकीर नो माइंड कहते हैं। __एक ऐसी दशा अपने भीतर खोज लेनी है जहां कुछ भी स्पर्श नहीं करता। और वैसी दशा तुम्हारे भीतर छिपी पड़ी है। वही तुम्हारी आत्मा। और जब तक हमने जाना तो हमने उस एक को नहीं जाना, जिसे जानने से सब जान लिया जाता है। उस एक को जानने से फिर द्वंद्व मिट जाता है। फिर दो के बीच चुनाव नहीं रह जाता, अचुनाव पैदा होता है। उस अचुनाव में ही आनंद है, सच्चिदानंद है। - जनक के जीवन में एक उल्लेख है। जनक रहते तो राजमहल में थे, बड़े ठाठ-बाट से। सम्राट थे और साक्षी भी। अनूठा जोड़ था। सोने में सुगंध थी। बुद्ध साक्षी हैं यह कोई बड़ी महत्वपूर्ण बात नहीं। महावीर साक्षी हैं यह कोई बड़ी महत्वपूर्ण बात नहीं, सरल बात है। सब छोड़कर साक्षी हैं। जनक का साक्षी होना बड़ा महत्वपूर्ण है। सब है और साक्षी हैं। ___एक गुरु ने अपने शिष्य को कहा कि तू वर्षों से सिर धुन रहा है और तुझे कुछ समझ नहीं आती। अब तू मेरे बस के बाहर है। तू जा, जनक के पास चला जा। उसने कहा कि आप जैसे महाज्ञानी के पास कछ न हआ तो यह जनक जैसे अज्ञानी के पास क्या होगा? जो अभी महलों में रहता, वेश्याओं के नृत्य देखता; और मैंने तो सुना है कि शराब इत्यादि भी पीता है। आप मुझे कहां भेजते हैं? लेकिन गुरु ने कहा, तू जा! ___गया शिष्य। बेमन से गया। न जाना था तो गया, क्योंकि गुरु की आज्ञा थी तो आज्ञावश गया। था तो पक्का कि वहां क्या मिलेगा। मन में तो उसके निंदा थी। मन में तो वह सोचता था, उससे ज्यादा तो मैं ही जानता हूं। और जब वह पहुंचा तो संयोग की बात, जनक बैठे थे, वेश्यायें नृत्य कर रही थीं, दरबारी शराब ढाल रहे थे। वह तो बड़ा ही नाराज हो गया। उसने जनक को कहा, महाराज, मेरे गुरु मन का निस्तरण 393

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