Book Title: Ashtavakra Mahagita Part 05
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 402
________________ नहीं छु श्वेतकेतु ने। खड़ा हो गया। उद्दालक ने कहा, बेटे, तूने वह जाना जिसको जानने सब जान लिया जाता है ? उसने कहा, यह कौन-सी बात कही ? यह तो कोई पाठ्यक्रम में था ही नहीं । वह, जिसे जानने से सब जान लिया जाता है ? इसकी तो गुरु ने कभी बात नहीं की। वेद जाने, इतिहास जाना, पुराण जाना, व्याकरण, भाषा, गणित, भूगोल – जो-जो था, सब जानकर आ रहा हूं। यह तो बात ही कभी नहीं उठी इतने वर्षों में— उस एक को जाना, जिसे जानने से सब जान लिया जाता है ? I तो उद्दालक ने कहा, तो फिर तू वापिस जा बेटे। क्योंकि हमारे घर में नाम के ही ब्राह्मण नहीं होते रहे । हमारे घर में सच के ब्राह्मण होते रहे हैं, नाममात्र के नहीं । ब्रह्म को जानकर हमने ब्राह्मण होने का रस लिया है। ब्राह्मण घर में पैदा होकर हम ब्राह्मण नहीं रहे हैं। हमने ब्रह्म को चखा है। तू जा । तू उस एक की खोज कर । तो एक तो ज्ञान है, जो बाहर से मिल जाता। तुम उसे इकट्ठा कर लेते हो । जो बाहर से मिलता है, बाहर ही रहेगा। जो बाहर का है, बाहर का है। वह कभी भीतर का न बनेगा । वह कभी तुम्हारे अंतश्चैतन्य को जगायेगा नहीं। वह तुम्हारे अंतर्गृह की ज्योतिं न बनेगा। उधार है, उधार ही रहेगा। बसा है, बासा ही रहेगा। इकट्ठा कर लिया है उच्छिष्ट, लेकिन तुमने स्वयं नहीं जाना है। यह जो स्वयं को जानना है, एक को जानना है, वह जो एक भीतर छिपा है उसको जानना है। उसके जानने से ही सब जान लिया जाता है। लेकिन हर बच्चा जायेगा स्कूल, कालेज, युनिवर्सिटी, खूब ज्ञान इकट्ठा करेगा, उपाधियां इकट्ठी करेगा। और सब उपाधियां अंततः उपाधि ही सिद्ध होती हैं, व्याधि ही सिद्ध होती हैं। लेकिन इकट्ठी करेगा। यह तो भटकेगा अभी । ज्ञानी का बालवत होना किसी और अर्थ में है । वह सब जानकर अब इस नतीजे पर पहुंचा है कि इस जानने से कुछ भी नहीं जाना जाता। जानकर सब उसने ज्ञान को कूड़े-करकट की तरह कचरेघर में फेंक दिया है। अब वह फिर अबोध हो गया, फिर बालवत हो गया। घूम आया सब संसार में, पाया कुछ भी नहीं। हाथ खाली के खाली रहे। यह जानकर अब उसने जानने में ही रस छोड़ दिया है। अब तो वह कहता है, जानने से क्या होगा ? अब तो हम उसी को जान लें जो सबको जानता है। अब तो हम ज्ञाता को जान लें; ज्ञान से क्या होगा? दृश्य में बहुत भटके, अब हम द्रष्टा को जान लें। यह जो भीतर छिपा सबका जाननेवाला है, इसको ही पहचान लें । बालवत - एक बात । दूसरी बात : बच्चे में एक खूबी है कि जो भी घटता वह क्षण के पार नहीं जाता। तुमने बच्चे को डांट दिया, वह नाराज हो गया, आंखें उसकी लाल हो गईं, पैर पटकने लगा, क्रोध से भर गया । तुमसे कहा, अब सदा के लिए तुमसे दुश्मनी हो गई। अब कभी तुम्हारा चेहरा न देखेंगे। और घड़ी भर बाद बाहर घूमकर आया, सब भूल-भाल गया, तुम्हारी गोद में बैठ गया । उसमें जो भी होता वह क्षण के लिए है। रुकता नहीं, बह जाता है। पकड़कर नहीं रह जाता। गांठ नहीं बनती है बच्चे में, तुममें गांठ बंध जाती है। किसी ने अपमान कर दिया, गांठ बंध गई। अब यह 388 अष्टावक्र: महागीता भाग-5

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