Book Title: Ashtavakra Mahagita Part 05
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

View full book text
Previous | Next

Page 377
________________ दूसरा प्रश्नः प्रभु, मरना चाहता हूं, बस मरना चाहता हूं इस देह में न अब रहना चाहता हूं आपके स्नेह को बस भरना चाहता हूं अब अपने को मैं अमीमय करना चाहता हूं प छा है बोधिधर्म ने। शून्य भर होना चाहता हूं। समझना होगा। गहरे से समझना होगा। क्योंकि यह भाव अनेकों के मन में उठता है। जब मैं तुम्हें समझाता हूं कि मिट जाओ, समाप्त हो जाओ, ताकि प्रभु हो सके; तुम अपने को पोंछ डालो, जगह खाली करो, ताकि वह उतर सके; तो एक प्रबल आकांक्षा उठती है मिट जाने की। और उसी आकांक्षा में भूल हो जाती है। ___ जब मैं कहता हूं मिट जाओ तो मैं यही कह रहा हूं कि अब तुम और आकांक्षा न करो। क्योंकि आकांक्षा रहेगी तो तुम बने रहोगे। तुम आकांक्षा के सहारे ही तो बने हो। कभी धन की आकांक्षा, कभी पद की आकांक्षा। आकांक्षा ही तो सघन होकर अहंकार बन जाती है। आकांक्षा ही तो अहंकार है। तो जब तक तुम आकांक्षा से भरे हो, तुम हो। जब तुम निराकांक्षा से भरोगे, कोई आकांक्षा न रहेगी...ध्यान रखना, आकांक्षा से मुक्त हो जाने की आकांक्षा भी जब न रही। . लेकिन तुम मुझे सुनते हो और बात कुछ की कुछ हो जाती है। मैं तुमसे कहता हूं कि मिट जाओ, मैं कहता हूं, आकांक्षा छोड़ो। तुम कहते हो, चलो ठीक, हम यही आकांक्षा करेंगे; मिट जाने की आकांक्षा करेंगे। तो तुम पूछते हो, हे प्रभु, कैसे मिट जायें? अब मिटाओ। . अभी तक कहते थे, कैसे जीयें ? कैसे और हो जीवन? और...और। अब कहते हो, कैसे मिटें? कैसे समाप्त हों? मगर बात तो वही की वही रही। कुछ फर्क न हुआ। तुम धन चाहते थे, अब तुम धर्म चाहने लगे। तुम पद चाहते थे, अब तुम परमात्मा चाहने लगे। तुम सुख चाहते थे, अब तुम स्वर्ग चाहने लगे। अब तक तुम वासनाओं के पीछे दौड़ रहे थे, अब तुमने एक नई वासना पैदा कर ली निर्वासना होने की। चूक गये। बात फिर गलत हो गई। ____ मैंने तुमसे यह नहीं कहा कि तुम मर जाने की आकांक्षा करो। मैंने तुमसे इतना ही कहा है कि अब तुम आकांक्षा न करो तो तुम मर जाओगे। यह जो मर जाना है, यह परिणाम है, कान्सिक्वेन्स है। तुम इसे चाह नहीं सकते। यह तुम्हारी चाहत का फैलाव नहीं हो सकता। अगर तुमने इसको भी चाह बना लिया, फिर चाह बच रही। चाह नये पंख पा गई। चाह नये घोड़े पर सवार हो गई। चाह ने तुम्हारे चित्त को फिर धोखा दे दिया। अब तुम यह चाह करने लगे। बुद्ध ने कहा है, निर्वाण चाहा तो निर्वाण को कभी उपलब्ध न हो सकोगे। और अष्टावक्र बार-बार कह रहे हैं कि अगर मोक्ष की भी चाह रह गई तो मुक्ति बहुत दूर। मोक्ष की चाह भी बंधन है। मोक्ष को भी न चाहो। चाहो ही मत। ऐसी कोई घड़ी, जब कोई भी चाह नहीं होती, उसी घड़ी तुम परमात्मा हो गये। चाह से शून्य घड़ी में परमात्मा हो जाते हो। इसलिए समझो, नहीं तो भूल हो जायेगी। मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि ध्यान में कैसे उतरें? बड़ी चाह लेकर आये हैं। मैं उनसे अवनी पर आकाश गा रहा 363

Loading...

Page Navigation
1 ... 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436