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मजिस्ट्रेट को लगा होगा, सुकरात पागल है। मौत चुन रहा है। तुमने चुनी होती मौत ? तुम कहते, छोड़ो सत्य इत्यादि। इसमें रखा क्या है? पाया क्या ? उपद्रव में पड़े। अगर सब झूठ बोल रहे हैं और सारा जीवन झूठ से चल रहा है तो इसी में कुशलता है। इसी में है समझदारी कि तुम भी झूठ बोलो, लोगों के साथ चलो। लोग जैसे हैं वैसे रहो - भेड़चाल |
एक स्कूल में एक शिक्षक ने अपने बच्चों से पूछा कि अगर एक घर के भीतर आंगन में दस भेड़ें बंद हों और एक छलांग लगाकर दीवाल से बाहर निकल जाये तो कितनी भीतर रहेंगी? एक बच्चा जोर से हाथ हिलाने लगा। उसने कभी हाथ हिलाया भी न था । वह बच्चा सबसे ज्यादा कमजोर बच्चा था। शिक्षक बड़ा खुश हुआ; उसने कहा, अच्छा पहले तू उत्तर दे। उसने कहा, एक भी न बचेगी । शिक्षक ने कहा, पागल हुआ है? मैं कह रहा हूं दस भेड़ें भीतर हैं और एक छलांग लगाकर निकल जाये तो भीतर कितनी बचेंगी ? तुझे गणित आता है कि नहीं ? तुझे गिनती आती है कि नहीं ?
उस छोटे लड़के ने कहा, गिनती आती हो या न आती हो, भेड़ें मेरे घर में हैं। मैं भेड़ों को जानता हूं। एक छलांग लगा गई, सब लगा गईं। गणित तुम समझो, भेड़ों मैं समझता हूं। और भेड़ें गणित को नहीं मानतीं। भेड़ तो अनुकरण से जीती है।
भीड़ भेड़ है | सदगुरु तुम्हें भीड़ से मुक्त कराता है। सदगुरु तुम्हें समाज के पार ले जाता है। सदगुरु तुम्हें शाश्वत के साथ जोड़ता है । समाज तो सामयिक है, क्षणभंगुर है । रोज बदलता रहता - आज कुछ, कल कुछ। नीति बदलती है इसकी, शैली बदलती है इसकी, ढंग ढांचा बदलता है इसका, व्यवस्था रोज बदलती रहती है।
सदगुरु तुम्हें उससे जुड़ा देता है जो कभी नहीं बदलता, जो सदा जैसा था वैसा है, वैसा ही रहेगा। सदगुरु तुम्हें परमात्मा से मिलाता है । और परमात्मा ही तुम्हारा आत्यंतिक स्वभाव है। इसलिए हम सदगुरु को मनोवैज्ञानिक नहीं कहते। और मनोवैज्ञानिक सदगुरु नहीं है।
फिर यह भी खयाल रखना, मनोवैज्ञानिक के पास तुम जाते हो, जब तुम रुग्ण होते हो । सदगुरु के पास तुम तब जाते हो जब तुम सब भांति स्वस्थ होते हो और अचानक पाते हो, जीवन में कोई अर्थ नहीं । इस भेद को खयाल रखना।
मेरे पास लोग आ जाते हैं कभी, वे कहते हैं, हमारे सिर में दर्द है। मैं कहता हूं, डाक्टर के पास जाना चाहिए। कोई कहता है कि तबियत खराब रहती है। तो चिकित्सा करवानी चाहिए। मैं इसलिए यहां नहीं हूं कि तुम्हारी तबियत खराब रहती है, उसका मैं इंतजाम करूं। तो डाक्टर किसलिए हैं ? जिसका काम वह करे ।
तुम मेरे पास तब आओ जब सब ठीक हो और फिर भी तुम पाओ कि कुछ भी ठीक नहीं है। धन है, पद है, प्रतिष्ठा है, और हाथ में राख ही राख । सफलता मिली है और हृदय में कुछ भी नहीं । एक फूल नहीं खिला, एक गीत नहीं उमगा । कंठ सूखा का सूखा रह गया है। बाहर सब हरियाला है और भीतर सब मरुस्थल है। और एक भी मरूद्यान का पता नहीं है। जरा भी छाया नहीं है, धूप ही धूप है, तड़पन ही तड़पन |
जब तुम्हारे पास सब हो और तुम पाओ कि कुछ भी नहीं है तब खोजना सदगुरु को । जब तुम्हारी सफलता असफलता सिद्ध हो जाये तब खोजना सदगुरु को । जब तुम्हारा धन तुम्हारे भीतर की निर्धनता
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अष्टावक्र: महागीता भाग-5