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आखिरी प्रश्नः निमित्त होना और स्वच्छंद होना क्या मात्र अभिव्यक्ति भेद हैं? कृपा करके समझायें।
मे | सा ही है। अभिव्यक्ति का ही भेद है।
दो अलग मार्गों के शब्द हैं। कृष्ण कहते हैं, निमित्त मात्र हो जाओ। अष्टावक्र कहते हैं, स्वच्छंद हो जाओ। जो निमित्त-मात्र हो गया वह स्वच्छंद हो जाता है। जो स्वच्छंद हो गया वह निमित्तमात्र हो जाता है। ___ समझो। निमित्तमात्र का अर्थ है, तुम कर्ता न रहो, प्रभु को करने दो। तुम करने की भाषा ही भूल जाओ। तुम बांसुरी हो जाओ, पोली बांसुरी। जो गाये प्रभु, बहे तुमसे। तुम बाधा न डालो।
अगर ऐसी तुम पोली बांसुरी हो गये और प्रभु तुम्हारे भीतर से बहा तो अचानक तुम पाओगे कि यह प्रभु जो तुम्हारे भीतर से बह रहा है, यह तुम्हारा ही स्वभाव है। यह प्रभु तुमसे भिन्न नहीं है। तुम्हारे अहंकार से भिन्न है, तुमसे भिन्न नहीं है। तुम्हारे अहंकार को ही छोड़ने की बात थी। वह तुमने छोड़ दिया, निमित्तमात्र हो गये। निमित्तमात्र होने में तुम मिटते थोड़े ही! याद रखना, तुम पहली दफा होते हो। मिटकर होते हो। हारकर जीतते हो। खोकर पाते हो। ___ जीसस ने कहा है, जो बचायेंगे वे न बचा पायेंगे। जो खो देंगे, वे बचा लेंगे। जीसस के वचन बड़े अदभुत हैं। जो बचायेंगे, न बचा पायेंगे। __तुम बचाओगे तो बचाओगे क्या? तुम वही बचाने की कोशिश करोगे जो नहीं बचाया जा सकता-अहंकार! अकड़! तुम खो दो इसे। इसे खोते ही तुम पाओगे, जो सदा ही बचा हुआ है। जिसे खोने का उपाय ही नहीं कोई। जो आधारभूत है। जो तुम्हारा स्वभाव है।
निमित्तमात्र हो जाओ और तुम स्वच्छंद हो गये। प्रभु के हाथों में सब छोड़कर तुम गुलाम थोड़े ही होते हो, तुम मालिक हो जाते हो। ____ पश्चिम से लोग आते हैं तो उनको समर्पण में बड़ी अड़चन मालूम होती है। वे कहते हैं, समर्पण कर देंगे तो हम गुलाम हो जायेंगे। समर्पण कर देंगे तो फिर हम कहां रहे? उनको समझने में समय लगता है कि समर्पण का अर्थ इतना ही है कि तुम्हारा जो नहीं है वही छोड़ दो। मैं उनसे कहता हूं, जो तुम्हारे पास नहीं है और तुम सोचते हो है, वह तुम मुझे दे दो, ताकि तुम्हारे पास जो है और तुम सोचते हो नहीं है, वह तुम्हें दिखाई पड़ जाये। मैं तुम्हें वही देता हूं जो तुम्हारे पास है। और तुमसे वही छीन लेता हूं जो तुम्हारे पास था ही नहीं, है भी नहीं, हो भी नहीं सकता, सिर्फ भ्रांति है।
निमित्तमात्र का अर्थ है, इधर अहंकार गया, वहां स्वभाव प्रगट हुआ। निमित्तमात्र का अर्थ है, अहंकार की चट्टान हटी कि झरना स्वभाव का बहा। वही तो स्वच्छंदता है। लेकिन कृष्ण की भाषा में उसका नाम परमात्मा है।
अष्टावक्र की भाषा में निमित्त की बात नहीं है, वह सीधी स्वच्छंदता की बात है। तुम स्वच्छंद हो जाओ। तुम स्वयं के छंद को खोज लो। तुम्हारे भीतर जो गहराई में पड़ा है उसको प्रगट होने दो। परिधि में मत भटको, केंद्र को प्रगट होने दो। ऊपर-ऊपर मत सतह पर भटकते रहो, गहरे...गहरे उतरो।
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अष्टावक्र: महागीता भाग-5