Book Title: Ashtavakra Mahagita Part 05
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

View full book text
Previous | Next

Page 361
________________ बैठा कि मालिक भी हैरान हुआ कि भेड़ें-बकरियां बाहर निकलने लगीं। घंटे भर में तो पूरा कमरा खाली हो गया। उसने खिड़की से जाकर भी देखा कि यह भगा तो नहीं रहा उनको ? बाहर तो नहीं निकाल रहा? लेकिन वह तो अपना पद्मासन जमाये बीच में बैठा था। उसने कुछ गड़बड़ की नहीं थी । उसने हाथ भी नहीं लगाया था। वह बड़ा हैरान हुआ। कहते हैं, उसने भेड़ों-बकरियों से पूछा कि सुनो भी! कहां भागी जा रही हो? उन्होंने कहा, वह आदमी इतनी भयंकर बदबू फेंक रहा है। कभी जन्मों से नहीं नहाया होगा यह आदमी। अंदर रहना मुश्किल है। कुछ लोग इसको परमहंस होना समझते हैं । परमहंस होने का यह अर्थ नहीं होता कि पता नहीं चलता कि क्या सही और क्या गलत, क्या सुंदर क्या असुंदर ! परमहंस होने का अर्थ अष्टावक्र के इस सूत्र में है । 'लेकिन स्वस्थ पुरुष की दृष्टि भाव्य और अभावन से युक्त होकर भी...।' वह जानता है— क्या ठीक, क्या गलत क्या सुंदर, क्या नहीं सुंदर; क्या करने योग्य, क्या नहीं करने योग्य, सब जानता है। लेकिन फिर भी अपने को इनसे भिन्न जानता है । द्रष्टा पर उसका ध्यान होता है, दृश्य पर उसका ध्यान नहीं होता। जानता है क्या भोजन करने योग्य है और क्या भोजन नहीं करने योग्य है, लेकिन इनमें बंधा नहीं होता। इनके पार अपने स्वयं के होने को जानता है कि मैं इनसे भिन्न हूं; दृश्य से सदा भिन्न हूं, ऐसे द्रष्टा में थिर होता है। भावनाभावनासक्ता दृष्टिर्मूढस्य सर्वदा । मूढ़ पुरुष की दृष्टि तो बस इसी में समाप्त हो जाती । मूढ़ पुरुष तो इसी में समाप्त हो जाता है कि यह अच्छा, यह बुरा। इससे अतिरिक्त उसका अपना कोई होना नहीं है। बस, क्या करूं क्या न करूं, क्या पाऊं क्या गवाऊं, इसी में सब समाप्त हो जाता है। इन दोनों के पार अतिक्रमण करनेवाली कोई चैतन्य की दशा उसके पास नहीं है— कि मैं करने के पार हूं, न करने के पार हूं। सुख के पार हूं, दुख के पार हूं। सुंदर के पार हूं, असुंदर के पार हूं। ऐसी उसके पास कोई दृष्टि नहीं है । पार की दृष्टि नहीं है । पारगामी कोई दृष्टि नहीं है। भाव्यभावनया सा तु स्वस्थ्यादृष्टिरूपिणी । और ज्ञानी जो है, स्वस्थ जो है, उसे भी दिखाई पड़ता है, क्या करने योग्य है, क्या नहीं करने योग्य; क्या चुनने योग्य, क्या नहीं चुनने योग्य । लेकिन साथ ही साथ इससे गहरे तल पर उसे यह भी दिखाई पड़ता रहता है कि मैं द्वंद्व के पार हूं। मैं इन दोनों के पार हूं। मेरा होना बड़ी दूर है। मैं इनसे अछूता हूं, अस्पर्शित हूं। मैं द्रष्टा हूं, दृश्य नहीं । दिखाई तो उसे सब पड़ता है लेकिन उसे द्रष्टा भी दिखाई पड़ता है। I तुम्हें सिर्फ दिखाई पड़ती हैं चीजें, तुम स्वयं नहीं दिखाई पड़ते। तुम सब देख लेते हो, अपने से चूक जाते हो । द्रष्टा को सब दिखाई पड़ता और एक नई चीज और दिखाई पड़ती है : स्वयं का होना दिखाई पड़ता है। तो ऐसा नहीं है कि परमहंस जो है वह दीवाल में से निकलने की कोशिश करेगा। क्योंकि उसको क्या भेद दीवाल में और क्या दरवाजे में ! ऐसा आदमी मूढ़ है, परमहंस नहीं। और ऐसा अक्सर हुआ मूढ़ कौन, अमूढ़ कौन! 347

Loading...

Page Navigation
1 ... 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436