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यह सूत्र भी महत्वपूर्ण है।
मूढ़ पुरुष की दृष्टि सदा ऐसा कर लूं, वैसा कर लूं, ऐसा हो, वैसा हो, यह प्रीतिकर है, यह अप्रीतिकर है, इसमें मेरा राग है, इसमें विराग है, ऐसे चुनाव में पड़ी है। इसके मैं पक्ष में हूं, इसके विपक्ष में हूं, ऐसे द्वंद्व में उलझी है। भावना और अभावना में लगी है।
कभी कहता है धन में मेरा भाव है, कभी कहता है, धन से मेरा भाव चुक गया। कभी कहता है धन में आकर्षण है, कभी कहता है धन में मेरा विकर्षण पैदा हो गया है। लेकिन विकर्षण आकर्षण ही है शीर्षासन करता हुआ। कुछ फर्क नहीं हुआ - भावना या अभावना ।
'लेकिन स्वस्थ पुरुष की दृष्टि भाव्य और अभावन से युक्त होकर भी दृश्य के दर्शन से रहित रूपवाली होती है।'
वह जो स्वस्थ पुरुष है — और स्वस्थ का अर्थ है, जो स्वयं में स्थित है। जो स्वस्थ पुरुष है, जो अपने घर आ गया, अपने केंद्र पर आ गया, जो अपने स्वयं के सिंहासन पर विराजमान हो गया, स्वभावात् हो गया, स्वभावात् — जो आ गया स्वभाव में, ऐसा पुरुष भाव्य और अभावन से युक्त होकर भी...।
इसका यह मतलब नहीं है कि ऐसे पुरुष के सामने तुम थाली में पत्थर रख दोगे तो वह पत्थर खाने लगेगा, क्योंकि अब उसे कुछ अंतर नहीं रहा । ऐसा पागलपन मत समझ लेना । कुछ लोगों को यह भी भ्रांति चढ़ी हुई है कि परमहंस का यही अर्थ होता है कि उनको कुछ भेद ही न रहा।
इस सूत्र को समझो। कि वह गंदगी भी रख दो उनकी थाली में तो उन्हें कोई अंतर नहीं है। कि उसी थाली में वे भोजन कर रहे हैं, उसी में कुत्ता भी आकर भोजन करने लगे, तो उन्हें कुछ भेद नहीं है । ऐसा लोगों को परमहंस के संबंध में खयाल है। और इस खयाल के कारण कई नासमझ इस तरह के परमहंस भी हो जाते हैं।
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जिस चीज को आदर मिलता है, आदमी वही हो जाता है। इसका भी अभ्यास कर लो तो यह भी जाता है। इसमें भी कोई अड़चन नहीं है। कोई अड़चन नहीं है। गंदगी की भी आदत डाल लो तो कोई अड़चन नहीं है।
मैंने सुना है, एक गांव में एक पगले रईस को सनक सवार हुई। उसके पास एक मकान में बहुत-सी भेड़ें और बकरियां थीं। वहां इतनी बदबू आती थी भेड़ और बकरियों की कि उसने ऐसे ही मजाक-मजाक में एक दिन अपने मित्रों से गोष्ठी में कह दिया कि जो व्यक्ति रात भर इस कमरे में रुक जाये उसको मैं एक हजार रुपया दूंगा।
कई ने कोशिश की । एक हजार रुपया कौन छोड़ना चाहे ? रात भर की बात है। लेकिन घंटे भर से ज्यादा कोई नहीं टिक सका। बास ही ऐसी थी । भेड़ें और बकरियां ! और सालों से वहां रह रही थीं, उनकी बास बुरी तरह भर गई थी । और अभी भी भेड़ें और बकरियां वहां अंदर थीं। उनके बीच में आसन लगाकर बैठना... कोई परमहंस ही कर सकता है। इतनी बदबू बढ़ जाये कि सिर भन्नाने लगे और आदमी भागकर बाहर आ जाये । वह कहे कि भाड़ में जायें तुम्हारे हजार रुपये। आखिरी आदमी जो कोशिश कर सका वह एक घंटे तक कर सका।
फिर आया मुल्ला नसरुद्दीन । उसने कहा, एक मौका मुझे भी दिया जाये। वह जैसे ही अंदर जाकर
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अष्टावक्र: महागीता भाग-5