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समस्त धर्मों का जो अंतिम निचोड़ है वह है, ऐसी घड़ियों को पा लेना जब न तो तुम भोगते और न कुछ करते; जब तुम बस हो । होने में भोक्ता की तरंग उठी कि चूक गए, कर्ता की तरंग उठी कि चूक गए। होने में कोई तरंग न उठी, बहने लगा रस। रसो वै सः ! वहीं आनंद की धार, वहीं अमृत की धार उपलब्ध हुई।
इसे समझो। रात तुम सपना देखते हो, तुम भलीभांति जानते हो झूठ है। रात नहीं, सुबह जाग जानते हो कि झूठ है। रात जान लो तो तुम प्रबुद्ध पुरुष हो जाओ, बुद्ध हो जाओ। रात तो तुम फिर भूल जाते हो। यह तुम्हारी पुरानी आदत है दृश्य में भूल जाने की। फिल्म में भूल जाते हो, टी. वी. पर देखते-देखते भूल जाते हो, किताब पढ़ते-पढ़ते भूल जाते हो । रात सपना देखते हो, अपनी ही कल्पना का जाल, वहां भूल जाते हो। और लगता है सब सच है, सब ठीक है। बिलकुल असंगत बातें भी ठीक लगती हैं। जो जरा भी संभव नहीं है वह भी ठीक लगता है।
एक पत्थर पड़ा है राह के किनारे, पास तुम पहुंचते हो, अचानक पत्थर उचककर खरगोश हो जाता है, फिर भी तुम्हें कोई अड़चन नहीं आती । घोड़ा चला आ रहा है, बदलकर पत्नी हो जाती है, तुम्हें कुछ अड़चन नहीं मालूम होती । तुम यह भी नहीं सोचते एक क्षण को, यह कैसे हो सकता है।
नहीं, तुम दृश्य में इतने लीन हो कि सोचने वाला है कहां ? जागकर देखनेवाला है कहां? निर्णय कौन करे ? तुम तो हो ही नहीं। तुम तो सिफर, तुम तो नकार हो। तुम्हारी मौजूदगी नहीं है। तुम्हारी मौजूदगी की किरण आ जाए तो सपना अभी टूटने लगे, अभी बिखरने लगे।
गुरजिएफ अपने शिष्यों को साधना के पूर्व तीन महीने के लिए एक ही प्रयोग करवाता था कि किसी भांति सपने में जागना आ जाए। बहुत सी विधियां उसने खोजीं थी। उनमें एक विधि यह थी कि तीन महीने तक चलो, उठो, बैठो, बाजार जाओ, दूकान जाओ, दफ्तर जाओ, मगर एक बात खयाल रखो कि जो भी तुम देख रहे हो झूठ है। इसको स्मरण रखो। इस स्मरण को गहराओ। इस बात का अभ्यास करो कि जो भी देख रहे, सब झूठ है।
बड़ी कठिनाई है। राह पर तुम चल रहे हो, जो लोग चल रहे - झूठ, जो कारें दौड़ रहीं - झूठ, जो बसें चल रही - झूठ; सब झूठ है। पहले तो अड़चन होती है। पहले तो बड़ी अड़चन होती है । बार-बार भूल जाते हो, क्योंकि जन्मों-जन्मों तक इसे सच माना है। लेकिन गुरजिएफ कहता है, चेष्टा करते रहो। कोई महीने भर के प्रयोग बाद यह बात थमने लगती है। यह भाव बना रहने लगता है कि सब झूठ ।
तीन महीने पूरे होते-होते एक दिन तुम अचानक पाओगे कि रात सपने में, अचानक बीच सपने में तुम्हें स्मरण आ जाता है - झूठ ! और वहीं सपना टूटकर बिखर जाता है। तीन महीने तुमने अभ्यास किया कि जो दिखाई पड़ रहा है — झूठ, जो दिखाई पड़ रहा है — झूठ, जो दिखाई पड़ रहा है — झूठ । यह अभ्यास गहरे चला गया। इसका तीर प्रवेश कर गया तुम्हारे हृदय की आखिरी सीमा तक । फिर एक दिन वहीं से रात सपना भी दिखाई ही पड़ेगा। यह अभ्यास एक दिन बोलेगा सपने में – 'झूठ' ।
झूठ कहते ही, यह भाव उठते ही कि यह झूठ है, यह सपना है - सपना बिखर जाता है। सन्नाटा छा जाता है। और जिस क्षण तुम्हें याद आता है कि यह सपना है, इधर सपना टूटा, उधर तुम जागे । दृश्य गया, द्रष्टा उठा।
निराकार, निरामय साक्षित्व
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