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जागने में लगाओ।
तुमने गौर से देखा कभी? मूढ़ अगर शांत बैठे तो सिर्फ जड़ मालूम होता है, मुर्दा मालूम होता है, प्रतिभाशून्य मालूम होता है, सोया-सोया मालूम होता है। ज्ञानी अगर शांत बैठे तो उसकी शांति जीवंत होती है। तुम गौर से सुनो तो उसकी शांति का कलकल नाद तुम्हें सुनाई पड़ेगा। ज्ञानी शांत बैठे तो उसकी शांति नाचती होती. उत्सवमग्न होती। मढ की शांति डबरे की भांति है। ज्ञानी की शांति कलरव करती बहती हुई सरिता की भांति है, गत्यात्मक है। मूढ़ की शांति कहीं नहीं जा रही, कब्र की शांति है। ज्ञानी की शांति कब्र की शांति नहीं है, जीवन का अहोभाव है; जीवन का महारास, जीवन का नृत्य, जीवन का संगीत है। मूढ़ की शांति में कोई संगीत नहीं। बस तुम शांति ही पाओगे। ज्ञानी की शांति संगीतपूर्ण है—छंदोबद्ध, स्वच्छंद है। ___तो ध्यान रखना, शांति को लक्ष्य मत बना लेना, नहीं तो बहुत जल्दी तुम मूढ़ की शांति में पड़ जाओगे। क्योंकि वह सस्ती है और सुगम है। कुछ भी करना नहीं पड़ता। बैठ गए! इसीलिए तो तुम्हारे बहुत से साधु-संन्यासी बैठ गए हैं। तुम उनके पास जाकर मूढ़ता ही पाओगे। उनकी प्रतिभा निखरी नहीं है, और जंग खा गई। ऐसी शांति का क्या मूल्य है जो निष्क्रिय हो? ऐसी शांति चाहिए जो सृजनात्मक हो। ऐसी शांति चाहिए जो गुनगुनाये। ऐसी शांति चाहिए जिसमें फूल खिलें। ऐसी शांति चाहिए जिसमें जीवन का स्पर्श अनुभव हो, और महाजीवन अनुभव हो; मरघट की नहीं। तुम्हारे मंदिर भी मरघट जैसे हो गए हैं। नहीं, कहीं भूल हो रही है। __ अष्टावक्र ठीक कहते हैं, मूढ़ की बनावटी शांति भी शोभा नहीं देती। - ऐसा ही समझो कि कोई कुरूप स्त्री खूब गहने पहन ले। तुमने देखा? स्त्री और कुरूप हो जाती है, अगर कुरूप है और गहने पहन ले। और अक्सर ऐसा होता है, कुरूप स्त्रियों को गहने पहनने का खूब भाव पैदा होता है। कुरूप स्त्रियां सोचती हैं कि शायद जो कुरूपता है वह गहनों में ढांक ली जाए। तो खूब रंग-बिरंगे कपड़े पहनो, खूब गहने ढांक लो, हीरे-जवाहरात लटका लो। लेकिन कुरूपता हीरे-जवाहरातों से नहीं मिटती, और उभरकर दिखाई पड़ने लगती है। कितने ही बहुमूल्य वस्त्र पहन लो, कुरूपता वस्त्रों से नहीं मिटती। इतना आसान नहीं।
और कोई संदर हो तो निर्वस्त्र भी, बिना वस्त्रों के भी सुंदर है; साधारण वस्त्रों में भी सुंदर है, बिना गहनों के भी सुंदर है, बिना आभूषणों के भी सुंदर है। हां, अगर सुंदर व्यक्ति के हाथ में आभूषण हों तो आभूषण भी सुंदर हो जाते हैं। कुरूप व्यक्ति के हाथ में पड़े आभूषण भी कुरूप हो जाते हैं।
तुम जैसे हो वही तुम्हारे जीवन पर फैल जाता है—वही रंग। इसलिए असली सवाल आभूषणों का नहीं है, असली सवाल अंतःसौंदर्य को जगाने का है। तुम्हारे भीतर एक सौंदर्य की आभा होनी चाहिए, जो तुम्हारे पोर-पोर से बहे और झलके; तुम्हारे रोयें-रोयें में जिसकी मौजूदगी हो; तुम्हारी श्वास-श्वास में जिसकी महक हो।
'कल्पनारहित, बंधनरहित और मुक्त बुद्धिवाले धीर पुरुष कभी बड़े-बड़े भोगों के साथ क्रीड़ा करते हैं और कभी पहाड़ की कंदराओं में प्रवेश करते हैं।'
विलसन्ति महाभोगैः विशन्ति गिरिगह्वरान्। निरस्तकल्पना धीरा अबद्धा मुक्तबुद्धयः।।
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अष्टावक्र: महागीता भाग-5