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समझाकर कहा, लेकिन वह माने ही नहीं। वह शास्त्रों के उद्धरण दे, और विवाद के लिए बिलकुल तत्पर खड़ा। चादविक ने लिखा है कि हम सब परेशान हो गए कि वह नाहक उन्हें परेशान कर रहा है। और उन्हें जो कहना था, कह दिया। समझ ले ठीक, न समझे, जाये। लेकिन वह वेद, उपनिषद, गीता इनके उद्धरण देने लगा और सिद्ध करने लगा कि मैं सही हूं।
चादविक ने लिखा है, तब एक घटना घटी जो अलौकिक थी। रमण ने उठाया डंडा और उसके पीछे दौड़े। रमण महर्षि किसी के पीछे डंडा उठाकर दौड़ें! सब भक्त भी चौंक गए। और वह आदमी भागा एकदम घबड़ाकर। उसे बाहर खदेड़कर वे हंसते हुए भीतर आए। डंडा रखकर अपनी जगह बैठ गए।
अब यह जो घटा यह बिलकुल स्वाभाविक है। यह आदमी दूसरी भाषा समझता ही न था। कोई उपाय ही न था। यह कुछ क्रोध नहीं है। यह वैसा क्रोध नहीं है जैसा तुम जानते हो। इसमें रमण कहीं भी अपने केंद्र से च्युत नहीं हुए। अपने केंद्र पर थिर हैं। लेकिन यह आदमी दूसरी भाषा समझता ही नहीं। इसको सब तरफ से समझाने की कोशिश कर ली, यह सिर्फ डंडे की भाषा ही समझेगा। ऐसा देखकर-और ऐसा भी किसी निर्णय से नहीं कि ऐसा सोच-विचारकर डंडा उठाया हो, डंडा उठा लिया बालवत. स्वाभाविक। यही मौजं था इस स्थिति में यह स्वाभाविक था।
चादविक ने लिखा है, उस दिन जैसी शांति रमण में पहले नहीं देखी थी। शांति, अपूर्व शांति थी। इतनी गहरी शांति थी इसीलिए इतने स्वाभाविक रूप से क्रोध को भी हो जाने दिया। इससे भी कोई बाधा न थी। . अष्टावक्र कहते हैं, स्वाभाविक उच्छृखल स्थिति भी शोभती है। चादविक ने लिखा है, वह रूप रमण का जो उस दिन देखा, अपूर्व था, बड़ा प्यारा था। यह भी शोभती है।
'लेकिन स्पृहायुक्त चित्तवाले मूढ़ की बनावटी शांति भी नहीं शोभती।' मूढ़ तो बोले तो मुश्किल में पड़े, न बोले तो मुश्किल में पड़े।
मैंने सुना है, लाला करोड़ीमल की छोटी-सी दूकान थी। एक बार दूकान में से दस रुपये का नोट कम हो गया। तो उन्होंने अपने नौकर ननकू से कहा, आज सुबह से शाम तक दूकान में कोई कौवा भी नहीं आया। दूकान में तुम्हारे और मेरे अलावा कोई भी न था। तुम्हीं कहो, दस रुपये कहां जा सकते हैं? ननकू ने तपाक से अपनी जेब से पांच रुपये निकालकर देते हुए कहा, हुजूर, यह लीजिए मेरा हिस्सा। मैं आपकी इज्जत खराब नहीं करना चाहता।
मूढ़ बोले तो फंसे, न बोले तो फंसे। मूढ़ फंसा ही हुआ है; कुछ भी करे। हर जगह उसकी मूढ़ता का दर्शन हो जाएगा।
इसलिए असली सवाल शांत बैठने, न बैठने का नहीं है, असली सवाल मूढ़ता को तोड़ने का है। असली सवाल जागने का है, अमूर्छा को लाने का है। ध्यान, तप, जप काम न आयेंगे। क्योंकि मूढ़ जप भी करेगा तो मूढ़ता ही प्रगट होगी। तप भी करेगा तो मूढ़ता ही प्रगट होगी। तुम्हारे भीतर जो है वही तो प्रगट होगा। तुम कुछ भी करो, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता, जब तक कि भीतर के केंद्र पर ही क्रांति घटित न हो।
इसलिए अष्टावक्र कहते हैं, उपर की व्यर्थ बातों में मत उलझना। सारी शक्ति भीतर लगाओ,
निराकार, निरामय साक्षित्व
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