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किसी की अर्थी गुजरती है, और तुम्हारे मन में एक धक्का लगता है। तुम कहते हो कि अरे! कोई मर गया। तब तुम्हें याद आती है अपने मरने की कि मुझे भी मरना होगा। जल्दी करो, जाने का वक्त आता होगा। यह अर्थी इसी की नहीं सजी, मेरी भी सजने के करीब है। ___ तुम जब भी रोते हो, अपने लिए रोते हो। तुम जब भी खिन्न होते हो, अपने लिए खिन्न होते हो। तुम जब भी क्रोधित होते हो, अपने लिए क्रोधित होते हो। तुम्हारा सारा जीवन अहं-केंद्रित है। ज्ञानी परुष अगर कभी खिन्न भी मालम पड़े तो किसी और के लिए। ज्ञानी पुरुष अगर कभी क्रोधित भी हो जाये तो किसी और के हित के लिए। ज्ञानी पुरुष अगर कभी उदास भी हो तो ख्याल करना, जल्दी निर्णय मत ले लेना। उसकी उदासी उसकी करुणा का हिस्सा होती है।
'धीर पुरुष संतुष्ट होकर भी संतुष्ट नहीं, दुखी होकर भी दुखी नहीं होता।'
तो कितने ही दुख में तुम पाओ बुद्धपुरुष को, वह दुखी नहीं है। उसके भीतर अब दुख का कोई वास नहीं रहा। अहंकार गया, उसी दिन अहंकार की छाया दुख भी गया।
'...उसकी उस आश्चर्यमय दशा को वैसे ही ज्ञानी जान सकते हैं।'
बड़ी कठिन बात है लेकिन, तुम कैसे पहचानोगे? तुम्हारी तो सब पहचान तुमसे ही निकलती है। तुम्हीं तो कसौटी हो तुम्हारे लिए। तुम जब रोते हो तो तुम जैसा सोचते हो, वैसा ही कोई किसी और को भी रोते देखोगे तो वही सोचोगे। तुम जब हंसते हो, जैसा तुम सोचते हो वैसा किसी और को हंसते देखोगे तब भी तुम वैसा ही सोचोगे। तुम अपने ही मापदंड से सोचते हो। तुम्हारा मापदंड तुम्हीं हो। इसलिए ज्ञानी पुरुष को तुम समझ नहीं पाते। ___ अष्टावक्र ठीक कहते हैं, तस्य आश्चर्यदशां-ऐसे ज्ञानी पुरुष की बड़ी आश्चर्यमय दशा है। और तुम उसे समझ न पाओगे, क्योंकि तुम्हारा वैसी दशा का कोई भी अनुभव नहीं है।
तां तां तादृशा एव जानन्ते।
उसे तो वे ही जान सकते हैं जिन्होंने वैसी दशा का अनुभव किया हो। बुद्ध को बुद्ध जान सकते हैं। जिन को जिन जान सकते हैं। कृष्ण को कृष्ण जान सकते हैं। उस परम दशा को जानने का और कोई उपाय नहीं है, जब तक कि वह परम दशा तम्हारे भीतर न घट जाये। ___मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, हम कैसे सदगुरु को पहचानें? बहुत मुश्किल है। असंभव है। तुम नहीं पहचान सकते। कोई उपाय नहीं है। तुम जो भी उपाय करोगे वह गलत होगा। तुम्हारे पास तो एक ही उपाय है कि जहां तुम्हें लगे—अनुमान ही होगा तुम्हारा, कोई प्रमाण नहीं हो सकता। जहां तुम्हें लगे, जिसके पास तुम्हें लगे कि तुम्हारे जीवन में कुछ रसधार बहती है वहां रुक जाना। अनुभव करना कुछ। अनुभव बढ़ने लगे तो समझना कि ठीक जगह रुक गये। अनुभव न बढ़े तो समझना कि कहीं और चलना पड़ेगा, कहीं और खोजना पड़ेगा। टटोलते रहना; और कोई उपाय नहीं।
तुम चाहो कि तुम्हारे पास कोई पक्की गारंटी हो सके-असंभव। क्योंकि तुम जांचोगे कैसे? जिन अनुभवों का तुम्हारे जीवन में कोई अब तक स्वाद ही नहीं है, तुम कैसे पहचानोगे? तुम जो भी तय कर लोगे वह गलत होगा। तुम अगर किसी ज्ञानी पुरुष को खिलखिलाकर हंसते देखोगे तो तुम सोचोगे, अरे यह कैसा ज्ञानी है ? ऐसे तो हमीं हंसते हैं। तुम अगर किसी ज्ञानी पुरुष की आंख में आंसू टपकते देख लोगे, तुम कहोगे यह कैसा ज्ञानी है? ऐसे तो हम रोते हैं।
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अष्टावक्र: महागीता भाग-5