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तस्याश्चर्यदशां तां तां तादृशा एव जानन्ते ।।
'धीर पुरुष संतुष्ट होकर भी संतुष्ट नहीं होता।'
क्या इसका अर्थ होगा ? क्योंकि संतोष और संतोष में भेद है। एक संतोष है, जो वही खट्टे अंगूरवाला संतोष है। नहीं मिला इसलिए किसी तरह अपने को संतुष्ट कर लिया। एक सांत्वना है, एक भुलावा है कि क्या करें, मिलता तो है नहीं, रोने से भी सार क्या है ? इसलिए मन मारकर बैठ गये। अब यह भी स्वीकार करने की हिम्मत नहीं होती कि हार गए हैं। हार भी क्या स्वीकार करनी ! यह हार का रोना भी क्या रोना ! तो अपनी हार को ही सजाकर बैठ गए। अपनी हार को ही गले का हार बनाकर बैठ गए। इसका ही गुणगान करने लगे। कहने लगे कि रखा ही क्या है ? संसार में है क्या ? संतुष्ट हो गए। कहते हैं, हम तो संतुष्ट हैं।
एक ऐसा संतोष है जो मुर्दा दिलों की सुरक्षा करता है, हारे हुओं की सुरक्षा बनता है। और जो जीवन के संघर्ष में, चुनौती में, विजययात्रा पर, अंतर्यात्रा पर निकलने का साहस नहीं रखते उनको जड़ बना देता है। यह एक तरह की शराब है, जिसको पीकर बैठ गए, कहीं जाने की जरूरत न रही।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं, हारे हुए लोग अगर यह भी स्वीकार कर लें कि हम हार गये तो भी गरिमा पैदा होती है। तो भी जीवन में एक गति आती, गत्यात्मकता आती। लेकिन हारे हुए लोग यह स्वीकार नहीं करते कि हम हार गये। वे तो हार को भी लीप-पोतकर जीत जैसा दिखाना चाहते हैं। एक ऐसा संतोष है।
जब अष्टावक्र कहते हैं, संतुष्टोऽपि न संतुष्टः- वह जो धीर पुरुष है, संतुष्ट होकर भी इस अर्थ में संतुष्ट नहीं है। उसका संतोष बड़ा और है । उसका संतोष आनंद से जन्मता है, हार से नहीं। उसका संतोष अंतर-रस से उपजता है । उसका संतोष सांत्वना नहीं है। उसका संतोष उदघोषणा है विजय की । जीवन को जाना, जीया, पहचाना, उस पहचान से आया संतोष । उसका संतोष, आनंद नहीं मिला . इसलिए मन मारकर बैठ गये ऐसा नहीं है, आनंद मिला इसलिए संतुष्ट है। उसका संतोष आनंद का पर्यायवाची है— पहली बात ।
दूसरी बातः जो पहला संतोष है वह तुम्हें रोक देगा, तुम्हारी गति को मार देगा; वह तुम्हें आगे न बढ़ने देगा। दूसरा जो संतोष है, वह मुक्त है। वह गति को मारता नहीं, वह गति को बढ़ाता है। तुममें और जीवन-ऊर्जा आती है। तुम जितने आनंदित होते हो और उतने ज्यादा आनंदित होने की क्षमता और पात्रता आती है। तुम जितना नाचते हो उतना नाचने की कुशलता बढ़ती है।
इसलिए जीसस ने कहा है, जिनके पास है उनको और भी दिया जायेगा । और जिनके पास नहीं है उनसे वह भी ले लिया जायेगा जो उनके पास है। कितना ही कठोर लगता हो यह वचन, लेकिन यह वचन परम सत्य है। जिनके पास है उन्हें और भी दिया जायेगा। वे ही मालिक हैं। उन्हें और-और मिलेगा, उन्हें मिलता ही रहेगा। उनके मिलने का कोई अंत नहीं आता। उन्हें सदा मिलेगा, शाश्वत तक मिलेगा। कहीं कोई आखिरी घड़ी नहीं आती, जहां उनके मिलने का द्वार बंद हो जाता हो । एक द्वार चुकता है, दूसरा खुलता है। एक पहाड़ पूरा चढ़े, दूसरा उत्तुंग शिखर सामने आ जाता है।
तो एक तो संतोष है कि बैठ गए मारकर मन, कि अब कहां जाना है ! हो गए संतुष्ट नहीं है कुछ सार कहीं। समझा लिया अपने मन को, कि अपने से यह होगा नहीं। अपनी हालत पहचान ली।
निराकार, निरामय साक्षित्व
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