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भिखारी की तरह ही जाते हो। धीर पुरुष हो गया सम्राट; नाचता है। जगत को तो बहुत कुछ देता ही है, परमात्मा को भी देता है, मांगता नहीं। परमात्मा के हाथों में भी स्वयं को उंडेल देता है। वहां भी नाचकर थोड़ा नाच परमात्मा को दे आता है। ____ 'पंडित, देवता और तीर्थ का पूजन कर तथा स्त्री, राजा और प्रियजन को देखकर कोई भी वासना नहीं होती।'
सुंदरतम स्त्री को देख लेता है तो भी वासना नहीं होती। क्या इसका यह अर्थ हुआ कि उसे सुंदर स्त्री में सौंदर्य दिखाई नहीं पड़ता? ऐसा लोग समझाते हैं। ऐसा तुम्हारे पंडित-पुरोहित तुम्हें कहते हैं। ___ बात गलत है। उसे सौंदर्य तो दिखाई पड़ता है—दिखाई पड़ेगा ही। उसको ही दिखाई पड़ेगा, तुम्हें क्या दिखाई पड़ेगा? तुम तो अंधे हो। जहां सौंदर्य होता, उसे दिखाई पड़ता है। लेकिन वासना पैदा नहीं होती, वहां भी अहोभाव पैदा होता है। सुंदर स्त्री में भी प्रभु का ही दर्शन होता है, सुंदर पुरुष में भी प्रभु का ही दर्शन होता है। अगर कमल में देखकर प्रभु का दर्शन होता है तो मनुष्यों के कमल जहां खिलते हैं उन्हें देखकर क्या घबड़ाहट ? घबड़ाहट तो जिन्हें होती है वे खबर दे रहे हैं कि अभी वासना जागती है, जीती है। अभी वासना चुकी नहीं। अभी ईंधन जारी है। अभी घबड़ाहट है। वे आंख फेर लेते हैं, आंख बंद कर लेते हैं। ___नहीं, धीर पुरुष सौंदर्य को देखेगा और हर सौंदर्य उसे उस परम सौंदर्य की याद दिलायेगा। हर सौंदर्य उस परम प्रकाश की ही एक किरण है। किसी स्त्री में नाची वह किरण, किसी बच्चे की आंखों में झलकी वह किरण, किसी झरने में गुनगुनायी वह किरण, लेकिन सब तरफ वही है। यह सूरज की ही धूप है सब तरफ। तुम्हें चाहे सूरज दिखाई न भी पड़े, लेकिन जो भी धूप है, यह सब सूरज की है। चाहे सूरज को सीधा देखना संभव भी न हो।
शायद परमात्मा को सीधा देखने में आंखें काम न आएं। शायद परमात्मा को सीधा देखना संभव ही नहीं है. क्योंकि हमारी आंखों की सीमा है। इसलिए हम प्रतिफलन में देखते हैं। किसी स्त्री के चेहरे पर, किसी बच्चे की आंखों में। किसी वीणाकार के स्वर में, पक्षियों के कलरव में, सागर की चट्टानों से टकराती लहरों के शोरगुल में। यह सब प्रतिफलन है। यह सब उसी की गूंज, अनुगूंज है। यह एक ही छाया है। इस अनेक में वही अनेक की तरह उतरा है।
तो स्त्री, राजा और प्रियजन को देखकर कोई भी वासना नहीं होती। सम्राटों को देखकर भी धीर पुरुष आनंदित होता है। क्योंकि सम्राटों में भी उसी का साम्राज्य है। वह जो सम्राट की चाल में गौरव है, गरिमा है, वह जो कुलीनता है, वह जो श्रेष्ठता है, वह जो आभिजात्य है, वह भी उसी का आभिजात्य है। वह जो सम्राट की आंखों में एक चमक है, वह भी उसी की चमक है।
सब चमक उसकी है। इसलिए सम्राट को देखकर भी उसे ऐसा नहीं होता कि वासना पैदा होती हो कि मैं सम्राट हो जाऊं। वह तो सम्राट हो ही गया है। वह तो सम्राटों का सम्राट हो गया है। वह तो राजराजेश्वर है। लेकिन अब किसी सम्राट में भी देखता है तो याद करता है, उसी का छोटा-सा टुकड़ा यहां भी उतरा। धूप थोड़ी-सी यहां भी है; उसी की है।
धूप का यह गुनगुना स्पर्श चौकड़ी भरते किरन के इंगुरी छोने
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अष्टावक्र: महागीता भाग-5