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था। पानी के बबूले पर पड़ती सूरज की किरणें इंद्रधनुष का जाल बुनती थीं। कैसा रंगीन था ! कैसा सतरंगा था ! कैसे काव्य की स्फुरणा हो रही थी ! और अभी गया। गया तो सब गए इंद्रधनुष ! गया तो सब गए सतरंग | गया तो गया सब काव्य ! कुछ भी न बचा।
क्षणभंगुर से हमारा जो संबंध हम बना लेते हैं और शाश्वत की आकांक्षा करने लगते हैं उससे दुख पैदा होता है। शाश्वतं जरूर कुछ है; नहीं है, ऐसा नहीं । शाश्वत है। तुम्हारा होना शाश्वत है। अस्तित्व शाश्वत है। आकांक्षा कोई भी शाश्वत नहीं है। दृश्य कोई भी शाश्वत नहीं है। लेकिन द्रष्टा शाश्वत है।
देखो, रात तुम सपना देखते हो, सुबह पाते हो सपना झूठ था । फिर दिन भर खुली आंखों जगत का फैलाव देखते हो, हजार-हजार घटनायें देखते हो। रात जब सो जाते हो तब सब भूल जाता है, सब झूठ हो जाता है।
दिन में तुम पति थे, पत्नी थे, मां थे, पिता थे, बेटे थे; रात सो गए, सब खो गया । न पिता रहे, न पत्नी, न बेटे। दिन तुम अमीर थे, गरीब थे; रात सो गए, न अमीर रहे न गरीब। दिन तुम क्या-क्या थे! रात सो गए, सब खो गया। दिन में जवान थे, बूढ़े थे; रात सो गए, न जवान रहे, न बूढ़े। सुंदर थे, असुंदर थे, सब खो गया । सफल-असफल सब खो गया। रात ने दिन को पोंछ दिया।
जैसे सुबह रात को पोंछ देती है, वैस ही रात दिन को पोंछ देती है । जैसे दिन के उगते ही रात सपना हो जाती है, वैसे ही रात के आते ही दिन भी तो सपना हो जाता है। इसे जरा गौर से देखो। दोनों ही तो भूल जाते हैं। दोनों ही तो मिट जाते हैं। लेकिन एक बना रहता है— रात जो सपना देखता है वही जागृति में दिन का फैलाव देखता है। देखनेवाला नहीं मिटता । रात सपने में भी मौजूद होता है।
कभी-कभी सपना भी खो जाता है और इतनी गहरी तंद्रा, इतनी गहरी निद्रा होती है कि स्वप्न नहीं होते, सुषुप्ति होती है स्वप्नशून्य, तब भी द्रष्टा होता है। सुबह तुमने कभी -कभी उठकर कहा हैऐसे गहरे सोये, ऐसे गहरे सोये कि सपने की भी खलल न थी । बड़ा आनंद आया। बड़े ताजे उठे। तो जरूर कोई बैठा देखता रहा रात भी । कोई जागकर अनुभव करता रहा रात भी गहरी निद्रा में
- रात
जागा था। कोई किरण मौजूद थी। कोई प्रकाश मौजूद था। कोई होश मौजूद था। कोई देख रहा था। नहीं तो सुबह कहेगा कौन? तुम सुबह ही जागकर अगर जागे होते तो रात की खबर कौन लाता? उस गहरी प्रसुप्ति की कौन खबर लाता ? रात भी तुम कहीं जागते थे किसी गहरे तल पर। किसी गहरे अंतश्चेतन में कोई जागा हुआ हिस्सा था, कोई प्रकाश का छोटा सा पुंज था । वही याद रखे है; उसी की स्मृति है सुबह कि रात बड़ी गहरी नींद सोये । अपूर्व थी, आनंदपूर्ण थी।
एक बात तय है, जागो कि सोओ, सपना देखो कि जगत देखो, सब बदलता रहता है, द्रष्टा नहीं बदलता। इसलिए द्रष्टा शाश्वत है। बचपन में भी द्रष्टा था, जवानी में भी द्रष्टा था, बुढ़ापे में भी द्रष्टा था। जवानी गई, बचपन गया, बुढ़ापा भी चला जाएगा, द्रष्टा बचा रहता है। तुम जरा गौर से छानो, तुम्हारे जीवन में तुम एक ही चीज को शाश्वत पाओगे, वह द्रष्टा है। कभी हारे, कभी जीते; कभी धन था, कभी निर्धन हुए; कभी महलों में वास था, कभी झोपड़ें भी मुश्किल हो गये, लेकिन द्रष्टा सदा साथ था। जंगलों में भटको कि राजमहलों में निवास करो, हार तुम्हें गड्डों में गिरा दे कि जीत तुम्हें शिखरों पर बिठा दे, सिंहासन पर बैठो कि कौड़ी - कौड़ी को मोहताज हो जाओ, एक सत्य सदा साथ
निराकार, निरामय साक्षित्व
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