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बची रह गई। स्मृति का ही फिर से फैलाव आशा है। अतीत का ही फिर-फिर फैलाव आशा है। - अतीत को भी छोड़ देना है। जो नहीं है, नहीं हो जाने दो। और अतीत की पुनरुक्ति की आशा भी मत करो। जब अतीत और भविष्य दोनों न होंगे तभी तुम वर्तमान में जागोगे। वही जागरण ध्यान का पहला अनुभव होगा। वही जागरण समाधि की पहली सुगंध होगी।
समाधि यानी वर्तमान। मन यानी अतीत और भविष्य।
मन वर्तमान में होता ही नहीं। वर्तमान में होगी तुम्हारी आत्मा, होगा तुम्हारा परमात्मा। अतीत भी नहीं, भविष्य भी नहीं, दोनों छूट गये। न स्मृति और न कल्पना का जाल। न अतीत के अनुभवों का बोझ, न भविष्य की आशा। किसी क्षण में जब तुम ऐसे वर्तमान में अडिग खड़े हो जाते हो, वहीं-ठीक वहीं सत्य से मिलन होता। अस्तित्व से पहली परख होती। आलिंगन में बंधते हो तुम उसके, जो है।
'मुक्त पुरुष का चित्त ध्यान या कर्म में प्रवृत्त नहीं होता है, लेकिन वह निमित्त या हेतु के बिना ही ध्यान करता और कर्म करता है।'
'मुक्त पुरुष का चित्त ध्यान या कर्म में प्रवृत्त नहीं होता है...।'
अब एक और अनूठी बात अष्टावक्र कहते हैं, न तो उसे कर्म की कोई आकांक्षा है, न ध्यान की कोई आकांक्षा है। आकांक्षा ही नहीं है। न तो वह अशांत होना चाहता है, न वह शांत होना चाहता है। वह कुछ होना ही नहीं चाहता। वह तो जो है उसके साथ राजी है। उसका राजीपन परिपूर्ण है, समग्र है। वह किसी तरह की वासना से ग्रसित नहीं है। उसके भीतर न कोई निमित्त है, न कोई हेतु है। जो प्रभु करवा लेता है, जब। कभी कर्म करवा लेता तो वह कर्म करता, कभी ध्यान करवा लेता तो वह ध्यान करता।
तुम कभी इस अनुभव से थोड़ा गुजरो। एक बार ऐसा कर लो कि तीन महीने के लिए तुम कुछ करोगे ही नहीं अपनी तरफ से। जो प्रभु करवा लेगा, कर दोगे। फिर प्रतीक्षा करने लगोगे। कभी मौन ला देगा तो तुम मौन बैठ जाओगे। कभी वाणी मुखर कर देगा तो तुम बोलोगे, कभी कोई गीत आयेगा तो गाओगे और कभी चुप्पी आ जायेगी तो चुप रह जाओगे।
‘शुरू-शुरू में कठिन होगा क्योंकि बड़ी बिबूचन होगी। कोई बोलने आया है और प्रभु तुम्हारे भीतर बोलता नहीं तो तुम्हें क्षमा मांगनी होगी। तुम कहोगे, भीतर प्रभु अभी बोलते नहीं। शुरू-शुरू अड़चन होगी। कभी कोई काम का बड़ा जाल सिर पर खड़ा होगा और भीतर से प्रेरणा न उठेगी प्रभु की, तो तुम नहीं करोगे, चाहे कुछ भी हो। कुछ भी खोये, कुछ भी हानि हो। और कभी-कभी व्यर्थ के काम को प्रभु करवाना चाहेगा। ऊर्जा उठेगी, बड़ी प्रेरणा आयेगी कि जाओ, सड़क साफ कर डालो; तो तुम सड़क साफ कर डालोगे। लोग पागल कहेंगे। लेकिन अगर तुम तीन महीने भी इस प्रक्रिया से गुजर जाओ तो तुम्हारे जीवन में कुंजी हाथ आ जायेगी।
उसी कुंजी की तरफ अष्टावक्र के सारे सूत्र इशारा हैं। और एक बार तुम्हें आनंद आ जाये...और ऐसा आनंद आयेगा, ऐसा अनिर्वचनीय आनंद आयेगा जैसा तुमने कभी जाना नहीं। फिर तुम लौट न सकोगे। तीन महीने तुम करो, फिर यह कभी समाप्त होनेवाला नहीं है। तीन महीने के बाद तुम इसे बदल न सकोगे। तुम्हें स्वाद लग जायेगा। और यह स्वाद अनूठा है।
इसी को कबीर ने सहज समाधि कहा है। उर्ले-बैलूं सो परिक्रमा, खाऊ-पिऊ सो सेवा। अब जो
महाशय को कैसा मोक्ष!
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