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मैंने लड़के को कहा, उसकी इतनी इच्छा थी, जिंदगी में तो न ले सकी, मर गई, कोई फिक्र नहीं, यह माला उसको पहना देना। यह नाम उसकी छाती पर रख देना । गैरिक वस्त्रों में लपेटकर उसको जला देना। अब और क्या करोगे !
यही मैं तुमसे कहता हूं। जीते-जी ले लेना। क्योंकि मरकर गैरिक वस्त्रों में दफनाये गये कि और वस्त्रों में, कुछ भेद नहीं पड़ता है। संन्यास का मूल्य ही यही है कि तुमने परम जागरूकता में, होश में लिया, चुना, उतरे ।
हाथ थे मिले कि जुल्फ चांद की संवार दूं ओंठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूं दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूं और सांस यूं कि स्वर्ग भूमि पर उतार दूं हो सका न कुछ मगर, शाम बन गई सहर वो उठी लहर कि ढह गये किले बिखर-बिखर और हम डरे-डरे नीर नैन में भरे ओढ़ कर कफन पड़े मजार देखते रहे, कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे।
मांग भर चली थी एक जब नयी-नयी किरण ढोलकें घुमुक उठीं ठुमुक उठे चरण चरण शोर मच गया कि लो चली दुल्हन, चली दुल्हन गांव सब उमड़ पड़ा बहक उठे नयन-नयन, पर तभी जहर भरी गाज एक वह गिरी पुछ गया सिंदूर तार-तार हुई चुनरी और हम अजान से दूर के मकान से पालकी लिये हुए कहार देखते रहे, कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे।
इसके पहले कि कारवां गुजर जाये और सिर्फ गुबार छूट जाये तुम्हारी राह पर, और तुम्हारी आंखें अपनी ही मजार को देखती रहें और कहार को देखती रहें जो तुम्हारी अर्थी को ले चले, कुछ कर लेना । ऐसी होशियारी की बातों में अपने को छिपाना मत। शब्द - जाल मत बुनना, सत्य को सीधा-सीधा देखना। न ले सको संन्यास, तो जानना कि मैं कायर हूं इसलिए नहीं ले रहा हूं। तो किसी दिन ले सकोगे। क्योंकि कौन कायर होना चाहता है! लेकिन तुमने अगर समझा कि कायर संन्यास ले रहे हैं, मैं बहादुर हूं इसलिए नहीं ले रहा हूं, तो फिर तुम कभी भी न ले सकोगे।
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कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे।
फिर तुम्हारी यही दशा होने को है ।
अष्टावक्र: महागीता भाग-5