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नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई पांव जब तलक उठे कि जिंदगी फिसल गई पात-पात झर गये कि शाख-शाख जल गई चाह तो निकल सकी न पर उमर निकल गई गीत अश्क बन गये छंद हो दफन गये साथ के सभी दिये धुआं-धुआं पहन गये और हम झुके-झुके मोड़ पर रुके - रुके उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे
जल्दी ही वक्त आ जायेगा । कारवां तो गुजर ही गया है, गुजर ही रहा है, गुबार ही हाथ रह जायेगी। कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे। इसके पहले कि हाथ में सिर्फ गुबार रह जाये, गुजरे हुए कारवां की धूल रह जाये, जागो ।
और जागने का एक ही अर्थ होता है: मन की न मानो । मन से लड़ने की भी जरूरत नहीं है, यह भी खयाल रखना। मैं तुमसे कह नहीं रहा कि मन से लड़ो। मैं तो कह रहा हूं सिर्फ मन की न मानो । फर्क है दोनों बातों में; बड़ा गहरा फर्क है। चूके अगर फर्क को समझने में तो भूल हो जायेगी। लड़े मन से तो मन से बाहर कभी भी न जा सकोगे। मानो मन की, या लड़ो मन से, हर हालत में मन के भीतर रहोगे। क्योंकि जिससे हम लड़ते हैं उससे दूर नहीं जा सकते।
मित्र से भी पास होते हैं हम शत्रु के । मित्र को तो भूल भी जायें, शत्रु भूलता नहीं । और जिससे तुम लड़ोगे, और जिसकी छाती पर बैठ जाओगे, छोड़कर हटोगे कैसे फिर ? हटे तो डर लगेगा, दुश्मन मुक्त हुआ, फिर पछाड़ न दे ।
तो जिसने दबाया, जो लड़ा, वह हारा।
लड़ने की नहीं कह रहा हूं। लड़ने की कोई जरूरत भी नहीं है। मालिक अपने गुलाम लड़ता थोड़े ही! कह देता, ‘नहीं मानते'; बात खतम हो गई। अब मालिक कुश्तमकुश्ती करे गुलाम से, तो ये तो तुम मालिक ही न रहे। लड़ने में ही तुमने जाहिर कर दिया कि तुम मालिक नहीं हो। मालिक सुन लेता गुलाम की। कह देता, ठीक, तूने सहायता दी, सुझाव दिया, धन्यवाद । करता अपनी।
तो मन से लड़ना भी मत । नहीं तो शुरू से ही संन्यास विकृत हो जायेगा । मन से लड़कर लिया तो चूक गये, ले ही न पाये| आये - आये करीब-करीब, चूक गये। किनारे-किनारे आते थे कि फिर किनारा छूट गया। तीर लगते-लगते ही लग नहीं पाया; ठीक जगह पहुंच नहीं पाया।
न तो मन की मानो, न तो मन से हारो और न मन के ऊपर जीतने की कोई चेष्टा करो। मालिक तुम हो। इसकी घोषणा करनी है। लड़कर सिद्ध थोड़े ही करना है ! लड़ने में तो तुम जाहिर कर रहे हो कि तुम मालिक नहीं हो, तुम्हें शक है; लड़कर सिद्ध करना पड़ेगा। मालिक तुम हो। स्वभाव से तुम मालिक हो । मन से कह दो, ठीक, पुराना चाकर है तू, तेरी बात सुन लेते हैं। तेरी अब तक सुनी भी, सार कुछ पाया नहीं। अब अपनी करेंगे बिना लड़े, बिना झगड़े ।
उतर जाओ संन्यास में। सरक जाओ। अगर न लड़े तो मन ऐसे विदा हो जाता है जैसे था ही नहीं।
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अष्टावक्र: महागीता भाग-5