________________
संसारी और संन्यासी में इतना ही फर्क है। जीवन की वीणा को जिसने बजाना सीख लिया उसे मैं संन्यासी कहता हूं। और जो संन्यासी है, जीवन की वीणा को बजाने में कुशल हो गया-ध्यान करो, उसे परमात्मा के पास नहीं जाना पड़ेगा, परमात्मा उसके पास आता है। ताबूत में चढ़कर तो जाने की बात छोड़ो, जाना ही नहीं पड़ेगा। परमात्मा खुद उसकी तरफ बहता है। आना ही पड़ता परमात्मा को। जब तुमने पूरी की पूरी व्यवस्था जुटा दी, जैसा होना चाहिए वैसे तुम हो गये, ध्यान की सुरभि फैलने लगी, तुम्हारे रोएं-रोएं में संगीत आपूरित हो गया, तुममें एक बाढ़ आ गई आनंद की, उल्लास की, तो परमात्मा रुकेगा कैसे?
जब फूल खिलता है तो भौरे चले आते हैं। जब तुम खिलोगे, परमात्मा चला आयेगा। तुम्हें जाने की भी जरूरत नहीं है। और जिस दिन परमात्मा तुम्हें चुनता है...तुम्हारे चुनने से कुछ भी नहीं होता। तुम तो चुनते रहते हो। तुम्हारे चुनने से कुछ भी नहीं होता, जिस दिन परमात्मा तुम्हें चुनता है उस दिन, बस उस दिन क्रांति घटती है। उस दिन तुम्हारा साधारण-सा लोहा उसके पारस-स्पर्श से स्वर्ण हो जाता है।
तुम कुछ ऐसा करो कि वह चला आये; उसे आना ही पड़े; वह रुक ना सके। तुम्हारा बुलावा शब्दों में न हो, तुम्हारा बुलावा अस्तित्व में हो जाये।
मेरा जीवन बिखर गया है तुम चुन लो, कंचन बन जाऊं
तुम पारस मैं अयस अपावन तुम अमृत मैं विष की बेली तृप्ति तुम्हारी चरणन चेरी तृष्णा मेरी निपट सहेली तन-मन भूखा जीवन भूखा सारा खेत पड़ा है सूखा तुम बरसो घनश्याम तनिक तो मैं आषाढ़ सावन बन जाऊं मेरा जीवन बिखर गया है
यश की बनी अनचरी प्रतिभा बिकी अर्थ के हाथ भावना काम-क्रोध का द्वारपाल मन लालच के घर रहन कामना अपना ज्ञान न जग का परिचय बिना मंच का सारा अभिनय सूत्रधार तुम बनो अगर तो
अपनी बानी प्रेम की बानी
145