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पहला प्रश्नः आपने कहा कि ज्ञानी स्पंदरहित हो जाता है और आपने यह भी कहा कि जिस में स्पंदन नहीं है वह चीज मृत है। कृपापूर्वक समझायें कि स्पंदनरहित होकर ज्ञानी पुरुष कैसे जीवित रहते हैं।
| क और भी स्पंदन है, और एक और | भी जीवन है, जहां अस्मिता तो नहीं है
लेकिन अस्तित्व है; जहां मैं तो नहीं हूं, परमात्मा है। जहां अहंकार तो मर गया, जा चुका, अतीत हो गया, लेकिन अहंकार के पार भी एक जीवन है, एक स्पंदन है। वस्तुतः तो वही जीवन है।
तो ज्ञानी एक अर्थ में तो मृत हो जाता है, और एक अर्थ में परम रूप से जीवित हो जाता है। इस अर्थ में मृत हो जाता है कि अब अपने ही माध्यम से परमात्मा को जीता है, स्वयं को नहीं। इस अर्थ में मृत हो जाता है कि अब अहंकार की तो कब्र बन गई। अब खुदी तो न रही, खुदा है। और खुदा भरपूर है। अब परमात्मा बहता है।
ज्ञानी तो बांस की पोंगरी हो गया। प्रभु गाता है तो गीत पैदा होता है। बांसुरी खुद नहीं गाती, लेकिन बांसुरी का भी गीत है। बांसुरी से गीत पैदा होता है। बांसुरी माध्यम बनती है, बाधा नहीं डालती।
• जीसस के जीवन में इस बात की ठीक-ठीक व्याख्या है। इस तरफ सूली लगी, उस तरफ नवजीवन मिला। एक हाथ सूली लगी, एक हाथ मृत्युलगी, दूसरे हाथ महाजीवन मिला, पुनरुज्जीवन मिला। यही समस्त ज्ञानियों की कथा है।
प्रश्न स्वाभाविक है। अष्टावक्र कहते हैं, स्पंदनशून्य हो जाता है ज्ञानी। अपनी कोई स्पंदना नहीं रह जाती। अपनी कोई कामना न रही तो स्पंदन कैसे होगा? अपनी कोई वासना न रही तो अब बुलबुले कैसे उठेंगे? अपना कोई भाव ही न रहा, कोई दौड़ न रही, कोई आपाधापी न रही, कहीं पहुंचना न रहा, कहीं जाना न रहा तो अब कैसा स्पंदन! लेकिन परमात्मा जा रहा है। परमात्मा गतिमान है, परमात्मा गति है, गत्यात्मकता है।
ज्ञानी तो मिट गया अपने तईं, अब परमात्मा हुआ। जब बीज टूट जाता है तभी तो अंकुर पैदा होता है। तो बीज की मृत्यु पौधे का जीवन है। अगर बीज बचा रहे तो पौधा नहीं पैदा हो सकेगा। ज्ञानी मिटता है, पिघलता है, खो जाता है तो परमात्मा के लिए मार्ग बनता है।
साधो, हम चौसर की गोटी!