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गहरे ‘बैलेंस', संतुलन में चल रही हैं। ___ तो महावीर कहते हैं, तुम बुरे और भले दोनों को स्वीकार कर लो, तुम्हारे हैं, क्योंकि और कोई परमात्मा नहीं है। कोई उपाय नहीं है किसी पर छोड़ने का, बस तुम्ही हो। बुरे और भले संतुलित हो जाते हैं। अच्छा-बुरा मिलकर एक-दूसरे को काट देते हैं। उनके कट जाने पर जो हाथ-लायी हाथ आती है, शून्य। कुछ बचता नहीं। उस शून्य में कैवल्य है, निर्वाण है।
अष्टावक्र कहते हैं, दोनों उस पर छोड़ दो। यह ज्यादा सुगम तरकीब है। महावीर की तरकीब से ज्यादा कारगर। महावीर की तरकीब जरा चक्करवाली है, लंबी है, अनावश्यक रूप से कठिन है। लेकिन किन्हीं को कठिन में चलने में रस आता है, वे चलें। अष्टावक्र की बात बड़ी सीधी-साफ है। अष्टावक्र कहते हैं दोनों उस पर छोड़ दो, कह दो सब निर्णय तेरे हैं। मैं भी तेरा हूं, तो मेरे निर्णय भी तेरे ही होंगे। जब मैं ही अपना नहीं हूं तो मेरे निर्णय मेरे कैसे हो सकते हैं! तूने दिया जन्म, तू देगा मौत, तो जीवन भी तेरा है। दोनों के बीच जो घटेगा, वह मेरा कैसे हो जायेगा!
तुमने जन्म तो अपने हाथ से लिया नहीं, तुम एकदम छलांग लगाकर तो नहीं जनम गये हो। तुमने अचानक पाया कि जन्म हो गया। एक दिन अचानक पाओगे कि मौत हो गई। दोनों के बीच में जीवन है। न शुरू का छोर तुम्हारे हाथ में है, न अंत का छोर तुम्हारे हाथ में है, तो मध्य भी तुम्हारे हाथ में हो नहीं सकता। अष्टावक्र कहते हैं, सभी उसके हाथ में है। ऐसा जानकर तुम शून्य हो गये। यह शून्य
समर्पण हो गया। परम दशा घट गई। तब मिटता है कर्ता। . कर्ता तो मान्यता है। दो अवस्थाओं में मिटता है-या तो महावीर के ढंग से, या अष्टावक्र के ढंग से। लेकिन मिटाये नहीं मिटता। मिटाने का कोई उपाय ही नहीं है। जब बोध होता है इस भीतर की आत्यंतिक दशा का, तो तुम वहां कर्ता को नहीं पाते हो।
तो मुझसे मत पूछो कि कैसे पहचानें कि यह निर्णय उसका है? इसमें तो धोखा-धड़ी हो जायेगी। पहचाननेवाले तो तुम्हीं रहोगे न! तो पहचाननेवाले की आड़ में छिप जायेगा कर्ता। अब वह वहां से काम शुरू करेगा। अब वह कहेगा, यह मेरा, यह उसका। लेकिन यह मेरा तो बच गया फिर! नया नाम हो गया, नये वेश, नये रूप-रंग, मगर बच गया फिर। इसे बचाओ ही मत। यह भ्रांति है तुम्हारी।
दिल का देवालय साफ करो
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