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व्रत इत्यादि से नहीं, बोध मात्र से जो मुक्त हुआ है; ऐसे व्यक्ति के जीवन में न तो आचार होता, न अनाचार होता। इतना ही नहीं, उदासीनता भी नहीं होती।
ये तीन बातें हैं साधारणतः। एक आदमी है अनाचार में भरा हुआ, जिसको हम कहते हैं भोगी । दूसरा व्यक्ति है आचार भरा हुआ, उसको हम कहते हैं योगी । इन दोनों के ऊपर एक व्यक्ति है उदासीन जिसके जीवन में अब न आचार रहा, न अनाचार रहा; जो दोनों से हटकर एकदम उदासीन हो गया है। यह तीसरी अवस्था है । अष्टावक्र कहते हैं, एक चौथी अवस्था भी है : उदासीन भी नहीं । यह चौथी अवस्था बड़ी अपूर्व है ।
समझें । अनाचार में जो पड़ा है, वह जो गलत है उसको भोग रहा है। आचार में जो पड़ा है, वह जो ठीक है उसको भोग रहा है। दोनों का चुनाव है। अनाचारी आधे को चुन लिया, आधे को छोड़ दिया । आचारी ने दूसरे आधे को चुन लिया, पहले आधे को छोड़ दिया। लेकिन पूरा सत्य दोनों के हाथ में नहीं है। इस बात को देखकर उदासीन ने दोनों को छोड़ दिया; लेकिन उसके हाथ में भी पूरा सत्य नहीं है। उदासीन तो नकारात्मक अवस्था है। वह बैठ गया तटस्थ होकर । उसने धारा में बहना छोड़ दिया।
एक चौथी अवस्था है—न आचार, न अनाचार, न उदासीनता। जीवन में खड़ा है व्यक्ति। न तो तय करता है कि आचरण से रहूंगा, न तय करता है कि अनाचरण में ही अपने जीवन को डालकर रहूंगा। तुमने खयाल किया, साधुओं के भी संकल्प होते हैं, असाधुओं के भी । साधु कहता है, जो शुभ है वही करूंगा। और असाधु कहता है, देखें कौन क्या बिगाड़ता है, अशुभ को करके रहेंगे।
अगर तुम कारागृह में जाओ तो तुम्हें पता चलेगा। कारागृह में बंद लोग अपने अपराधों को भी बढ़ा-चढ़ाकर बताते हैं। क्योंकि वहां तो अपराधी ही अपराधी हैं। वहां तो अहंकार को तृप्त करने का एक ही उपाय है। कोई कहता है, मैंने दो आदमी मारे। वह कहता, यह क्या रखा ! अरे ऐसे बीसों मार चुका। कोई कहता है, लाख रुपये का डाका डाला। वह कहता है, यह भी कोई डाका है ? अरे यह तो हमारे घर में बच्चे कर लेते हैं। ऐसे करोड़ का डाका डाला है।
मैंने सुना है, एक कारागृह में एक आदमी प्रविष्ट हुआ। एक कोठरी में उसे ले जाया गया। कोठरी जो पहले से ही कारागृह में बंद आदमी था, उसने पूछा, कितने दिन की सजा हुई? इस आदमी ने कहा, दो साल की। उसने कहा, तू वहीं दरवाजे के पास अपना डेरा रख। जल्दी तेरे को निकल जाना है । इधर हमको तीस साल रहना है। उसकी अकड़ ! वहीं रख डेरा दरवाजे के पास। ऐसे ही कोई सिक्खड़ मालूम होता। नौसिखुआ ! चले आये ! करना - धरना नहीं आता कुछ। अभी वहीं रह । तेरे जाने का वक्त तो जल्दी आ जायेगा। दो साल ही हैं न कुल ? इधर तीस साल रहना है। तो दादा गुरु... ।
कारागृह में लोग अपने पाप का भी बखान करते हैं जोर से। बड़ा करके बढ़ा-चढ़ाकर अतिशयोक्ति करते। ठीक वैसा ही जैसा कि तुम रुपया दान दे आते तो हजार बताते हो।
एक सज्जन मेरे पास आये, पत्नी उनके साथ थी । पत्नी ने अपने पति की प्रशंसा में कहा कि बड़े दानी हैं। शायद आपने इनका नाम सुना हो, न हो, एक लाख रुपया दान कर चुके अब तक। पति ने ऐसा धक्का मारा हाथ से और कहा, एक लाख दस हजार। यह कोई बात है ! वह दस हजार की चोट
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अष्टावक्र: महागीता भाग-5