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मुस्कुरा कर रह जाते। उन्होंने कहा, चार महीने रुको तो! चार महीने बाद आयेगा। ___चार महीने बाद भिक्षु आया, उसके पीछे वेश्या भी आयी। वेश्या, इसके पहले कि भिक्षु कुछ कहे, बुद्ध के चरणों में गिरी। उसने कहा कि मुझे दीक्षा दे दें। इस भिक्षु को भेजकर मेरे घर, आपने मेरी मुक्ति का उपाय भेज दिया। मैंने सब उपाय करके देख लिये इसे भटकाने के, मगर अपूर्व है यह भिक्षु। मैंने नाच देखने को कहा तो इसने इंकार न किया। मैं सोचती थी कि भिक्षु कहेगा, मैं संन्यासी, नाच देखू? कभी नहीं! जो कुछ मैंने इसे कहा, यह चुपचाप कहने लगा कि ठीक। मगर इसके भीतर कुछ ऐसी जलती रोशनी है कि इसके पास होकर मुझे स्मरण भी नहीं रहता था कि मैं वेश्या हूं। इसकी मौजूदगी में मैं भी किसी ऊंचे आकाश में उड़ने लगती थी। मैं इसे नीचे न उतार पाई, यह मुझे ऊपर ले गया। मैं इसे गिरा न पाई, इसने मुझे उठा लिया। इस भिक्षु को मेरे घर भेजकर आपने मुझ पर बड़ी कृपा की। मुझे दीक्षा दे दें, बात खतम हो गई। यह संसार समाप्त हो गया। जैसी जागृति इसके भीतर है, जब तक ऐसी जागृति मेरे भीतर न हो जाये तब तक जीवन व्यर्थ है। यह दीया मेरा भी जलना चाहिए।
बुद्ध ने अपने और भिक्षुओं से कहा, कहो क्या कहते हो? तुम रोज-रोज खबरें लाते थे। मैं तुमसे कहता था, थोड़ा धीरज रखो। इस भिक्षु पर मुझे भरोसा है। इसका जागरण हो गया है। यह जाग्रत रह सकता है। असली बात जागरण है। गहरी बात जागरण है। आखिरी बात जागरण है।
तो अष्टावक्र कहते हैं: न मुक्तिकारिकां धत्ते निःशंको युक्तमानसः। पश्यन्श्रृण्वन्स्पृशन्जिघ्रनश्नन्नास्ते यथासुखम्।।
देखो, सुनो, खाओ, पीयो, रहो संसार में-जागे हुए, सुखपूर्वक। भागो मत, भोगो मत। भोगो मत, त्यागो मत। जागो! उसी जागरण से परम सिद्धि फलित होती है। भाग गये तो भी कल्पना पीछा करेगी। जाग गये तो फिर कल्पना बचती ही नहीं।
तुमको निहारता हूं सुबह से ऋतंभरा अब शाम हो रही है मगर मन नहीं भरा या धूप में अठखेलियां हर रोज करती है एक छाया सीढ़ियां चढ़ती-उतरती है मैं तुम्हें छूकर जरा-सा छेड़ देता हूं
और गीली पांखुरी से ओस झरती है
तुम कहीं पर झील हो, मैं एक नौका हूं
. इस तरह की कल्पना मन में उभरती है तुम दूर बैठ गये जाकर, कुछ फर्क न पड़ेगा। नई-नई कल्पनायें मन में उभरेंगी।
तुमको निहारता हूं सुबह से ऋतंभरा दूर बैठे पहाड़ पर भी तुम उसको ही निहारोगे जिसको छोड़कर भाग गये। उसी को निहारोगे, और क्या करोगे? जिसे छोड़कर भागे हो वही तुम्हारा पीछा करेगा।
तुमको निहारता हूं सुबह से ऋतंभरा
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अष्टावक्र: महागीता भाग-5