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ज्ञानी ऐसे जीने लगता है जैसे सूखा पत्ता हवा में। जहां ले जाये हवा। पूरब तो पूरब, पश्चिम तो पश्चिम। साधो, हम चौसर की गोटी! अब अपनी कोई आकांक्षा नहीं है। कहीं जाने का अपना कोई मंतव्य नहीं है, कोई योजना नहीं है। इसलिए न कोई विषाद है, न कोई हर्ष का उन्माद है। एक परम शांति है। स्पंदन कहां? अपना स्पंदन गया। अपने ही साथ गया। ___ अब वे दिन गये, जब अहंकार सपने बुनता था। और अहंकार हार-जीत की बड़ी योजनायें बनाता था। और अहंकार डरता था, घबड़ाता था, सुरक्षा के आयोजन करता था। वे दिन गये। वहां तो मौत हो गई। अहंकार तो अब राख है। वह ज्योति तो हमने फूंक दी और बुझा दी।
अब तो एक ऐसी ज्योति का अवतरण हुआ जो न बुझती, न कभी जन्मती। शाश्वत का अवतरण हुआ। अब शाश्वत का स्पंदन है।
तो ज्ञानी एक अर्थ में मर जाता और एक अर्थ में केवल ज्ञानी ही जीता है, तुम सब मरे हो। कबीर ने कहा है, 'साधो ई मुर्दन के गांव।' ये सब मुर्दे हैं यहां। इनमें कोई जिंदा नहीं है।
जीसस ने एक सुबह झील पर एक मछुए के कंधे पर हाथ रखा और कहा कि कब तक मछलियां पकड़ता रहेगा? अरे, कुछ और भी पकड़ना है कि मछलियां ही पकड़ते रहना है? मेरे पास आ. मेरे साथ चल। मैं तझे कुछ बड़े फंदे फेंकना सिखा दूं जिनमें मछलियां तो क्या, आदमी फंस जाये। आदमी तो क्या, परमात्मा फंस जाये।
मछुआ भोला-भाला आदमी था; न पढ़ा न लिखा। उसने जीसस की आंखों में देखा, भरोसा आ गया। पढ़ा-लिखा होता तो संदेह उठता। सोच-विचार का आदमी होता तो कहता विचारूंगा, यह क्या बात है, कंधे से हाथ हटाओ! ऐसे कहीं कोई किसी के पीछे चलता? लेकिन जीसस की आंखों में झांका सरलता से; भरोसा आ गया। ये आंखें झूठ बोल नहीं सकतीं। यह चेहरा प्रमाण था। जाल फेंक दिया वहीं। जीसस के पीछे हो लिया।
वे गांव के बाहर भी न निकले थे कि एक आदमी भागा हुआ आया और उसने मछुए से कहा, पागल। कहां जा रहा है? तेरे पिता की मत्य हो गई। पिता बीमार थे. कभी भी जा सकते थे। उस आदमी ने जीसस से कहा, क्षमा करें, मैं तो आता था लेकिन भाग्य ने अड़चन डाल दी। मुझे थोड़े दिन की आज्ञा दे दें-एक सप्ताह, आधा सप्ताह। पिता का अंतिम संस्कार कर आऊं और आ जाऊं। जीसस ने कहा, छोड़। गांव में काफी मुर्दे हैं, वे मुर्दे को जला लेंगे। तू मेरे पीछे आ।
साधो ई मुर्दन के गांव! एक अर्थ में तुम बिलकुल मरे हुए हो। तुम्हारा जीवन भी क्या जीवन ! है क्या वहां? मुट्ठी जब तक बांधे हो तब तक लगता है, है कुछ। जरा खोलकर तो देखो। लोग कहते हैं, बंधी लाख की, खुली खाक की। ठीक ही कहते हैं। बांधे रहो तो भरोसा रहता है, कुछ है। तिजोड़ी खोलकर मत देखना। और कभी इधर-उधर झांकना मत अपने जीवन में, अन्यथा घबड़ाहट होगी। है तो कुछ भी नहीं। व्यर्थ ही शोरगुल मचाये होः गौर से देखोगे तो पाओगे, क्या है जीवन? यह रोज उठ आना, रोज भोजन कर लेना, रोज कपड़े बदल लेना, रोज दफ्तर हो आना, दूकान हो आना, कारखाने हो आना; फिर सांझ लौट आना, फिर सो जाना, फिर सुबह वही। - इस चके में घूमने का नाम जीवन है? यह भी कोई जीवन है? ऐसा जीवन तो पशु भी जी रहा है। और तुमसे बेहतर जी रहा है। और ऐसा जीवन तो वृक्ष भी जी रहे हैं। वे भी भोजन कर लेते हैं, पानी
मन तो मोसम-सा चंचल
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