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कहीं कोने-कातर में दूसरा छिपा होगा। क्योंकि स्वयं की लकीर दूसरे की मौजूदगी के बिना खिंच ही नहीं सकती। 'मैं' और 'तू' साथ-साथ होते हैं। पहले में 'तू' प्रगाढ़ है, 'मैं' छिपा है। दूसरे में 'मैं' प्रगाढ़ है, 'तू' छिपा है। ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। पहले में 'तू' ऊपर, 'मैं' नीचे; दूसरे में 'मैं' ऊपर, 'तू' नीचे। तीसरे में पूरा सिक्का खो गया-न 'मैं' बचा, न 'तू' बचा; कैवल्य बचा, चैतन्य बचा। यह परम एकांत है—समाधि की अवस्था! भीड़ तो गई ही गई, तुम भी गये भीड़ के साथ! तुम भी भीड़ के ही हिस्से थे। तुम भी भीड़ के ही एक अंग थे।
पहली अवस्था में अशांति है; दूसरी अवस्था में शांति; तीसरी अवस्था में आनंद। पहली नकारात्मक, दूसरी विधायक, तीसरी महोत्सव की। सिर्फ विधायक नहीं। सिर्फ विधायक काफी नहीं है। अब विधायकता नाचती हुई है, गीत गाती हुई है। अब विधायकता बड़ी रंगीन है। ___ इस फर्क को ऐसा समझना। एक आदमी बीमार है; वह नकारात्मक स्थिति में है। दूसरा आदमी बीमार नहीं है। डॉक्टर के पास जाता है तो वह निरीक्षण करके कहता है कि कोई बीमारी नहीं, स्वस्थ हो। लेकिन उस आदमी के भीतर स्वास्थ्य का कोई उत्सव नहीं है। वह कहता है : 'आप कहते हैं तो मान लेता हूं, लेकिन मुझे कुछ मजा नहीं आ रहा; स्वास्थ्य की ऊर्जा नाचती हुई नहीं है। बीमारी नहीं है तो आप कहते हैं, स्वस्थ हूं। परिभाषा से स्वस्थ हूं; लेकिन अभी स्वास्थ्य का कोई आंदोलन नहीं है, ऐसा तरंगायित नहीं हूं। ___तो एक तो बीमारी है, दूसरा डॉक्टर का स्वास्थ्य है-डॉक्टर के निदान से मिला स्वास्थ्य। जांच कर ली, सब जांच-परख कर ली, कहीं कोई बीमारी नहीं। घर भेज दिया कि कोई बीमारी नहीं, इलाज की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन तुम नाचते हुए घर नहीं आ रहे हो। तुम्हारे भीतर उमंग नहीं है, उत्सव नहीं है, हर्षोन्माद नहीं है।
तीसरा एक और स्वास्थ्य है, जब तुम डॉक्टर से पूछने ही नहीं जाते; जब तुम्हारा स्वास्थ्य ही ऐसा अहर्निश बरसता है। किससे पूछना है! बीमारी भी गई, डॉक्टर का स्वास्थ्य भी गया; अब तुम स्वस्थ हो! तुम इतने स्वस्थ हो कि अब स्वास्थ्य का खयाल भी नहीं आता। स्वास्थ्य का खयाल भी बीमार आदमी को आता है। अब तुम इतने स्वस्थ हो कि विदेह हो गये।
ये तीन अवस्थाएं हैं अकेलेपन की। पूछा है : 'भीड़ में मन नहीं लगता।'
यह शुभ है। यह यात्रा का पहला सूत्रपात है। जिसका भीड़ में मन लगता है, वह तो बुरी तरह भटका है। वही पागल है। भीड़ में मन लगता है, इसका अर्थ हुआः अपने में मन नहीं लगता। उसके तो भीतर के मंदिर के द्वार बंद हैं। अच्छा है, तुम्हारा भीड़ में मन नहीं लगता। यह ठीक हआ। एक कदम ठीक उठा।
दूसरी बात, पूछा है : 'लेकिन निपट एकाकीपन से भी जी घबड़ाता है।'
वह भी स्वाभाविक है। जन्मों-जन्मों तक भीड़ में रहे हो, भीड़ का अभ्यास है; अब बोध तो आ गया है कि भीड़ व्यर्थ है, लेकिन अभ्यास कायम है। बोध से ही अभ्यास मिट नहीं जाता। अभ्यास गहरे उतर गया है, रोएं-रोएं में समा गया है, श्वास-श्वास में भिद गया है। अभ्यास तो भीड़ का है। समझ भी आ गई देखकर कि भीड़ में कुछ सार नहीं, बहुत देख लिया, अब अकेले बैठना चाहते हो;
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अष्टावक्र: महागीता भाग-5