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ओ प्यासे अधरों वाली इतनी प्यास जगा बिन जल बरसाये यह घनश्याम न जा पाये
रेशम के झूले डाल रही है झूल धरा ' आ-आ कर द्वार बुहार रही है पुरवाई
लेकिन तू धरे कपोल हथेली पर बैठी है याद कर रही जाने किसकी निठुराई!
जब भरी नदी, तू रीत रही
जी उठी धरा, तू बीत रही ओ सोलह सावनवाली ऐसे सेज सजा घर लौट न पाये जो बूंघट से टकराये
ओ प्यासे अधरोंवाली इतनी प्यास जगा बिन जल बरसाये यह घनश्याम न जा पाये
बादल खुद आता नहीं समुंदर से चलकर
सुनो
बादल खुद आता नहीं समुंदर से चलकर प्यास ही धरा की उसे बुलाकर लाती है जुगनू में चमक नहीं होती केवल तम को छूकर, उसकी चेतना ज्वाला बन जाती है
सब खेल यहां पर है धुन का
जग ताना-बाना है गुण का ओ सौ गुणवाली ऐसी धुन की गांठ लगा सब बिखरा जल सागर बन-बनकर लहराये
ओ प्यासे अधरोंवाली इतनी प्यास जगा
बिन जल बरसाये यह घनश्याम न जा पाये घनश्याम तो घिरे हैं, बादल तो उमड़-घुमड़ रहे हैं, मेघ तो सदा से मौजूद रहे हैं—तुमने पुकारा नहीं। तुम वस्तुतः प्यासे नहीं। तुम्हारी धरा अभीप्सा से डांवाडोल नहीं। तुम्हारे हृदय में ऐसी पुकार नहीं उठी है कि उस पर सब न्योछावर हो। इसीलिए चूक हो रही है।।
मार्ग की पछते हो? पथ की पछते हो? ये सब गणित के हिसाब हैं।
बुद्ध से किसी ने पूछा है कि आप कहते हैं, बुद्धपुरुष केवल मार्ग दिखाते हैं, तो फिर बुद्धपुरुषों के सानिध्य और सत्संग का वस्तुतः लाभ क्या है ? तो बुद्ध ने कहा : 'लाभ है कि प्यास लग जाये; लाभ है कि उनके पास धुन जग जाये।'
बुद्ध को देखकर अगर तुम्हारे भीतर प्यास जग जाये, तुम्हारे भीतर एक अभीप्सा का आरोहण
एकाकी रमता जोगी
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