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सकता। समय पड़ने पर कौवा प्रकट हो जायेगा। अभ्यास कर ले, चला जाये किसी संगीत-विद्यालय में, और वहां धीरे-धीरे अभ्यास करके अपने कंठ को भी साध ले, कोकिलकंठी हो जाये, लेकिन किसी मौके पर, जहां अभ्यास को साधने का खयाल न रहेगा-किसी मौके पर बात गड़बड़ हो जायेगी।
ऐसा है कालिदास के जीवन में उल्लेख कि वे जिस राजा भोज के दरबार में थे, एक महापंडित आया। उस महापंडित को तीस भाषाएं आती थीं। और उसने सम्राट भोज के दरबारियों को चुनौती दी कि अगर कोई मेरी मातृभाषा पहचान ले तो मैं एक लक्ष स्वर्ण मुद्राएं भेंट करूंगा। और अगर कोई पहचानने में भूल हुई तो एक लक्ष स्वर्ण मुद्राएं उस व्यक्ति को मुझे भेंट करनी पड़ेगी।
सम्राट भोज को यह चुनौती बड़ी अखरी। क्या मेरे दरबार में ऐसा कोई भी आदमी नहीं, जो इसकी मातृभाषा पहचान ले? चुनौती स्वीकार कर ली गई। एक के बाद एक दरबारी हारते गये। और भोज बड़ा दुखी होने लगा। अंततः उसने कालिदास से कहा कि कुछ करो। कालिदास ने कहा कि मुझे जरा निरीक्षण करने दो। आदमी गहन अभ्यासी है। जो भाषा बोलता है, ऐसी लगती है कि इसकी मातृभाषा है। वही भूलें करता है, जो सिर्फ मातृभाषा बोलनेवाले लोग करते हैं। उसी ढंग से बोलता है, उसी लहजे में बोलता है, जो मातृभाषावाले बोलते हैं। और सभी भाषाएं! बड़ा मुश्किल है। लेकिन जस मुझे देखने दो।
ऐसा दो-चार दिन कालिदास उसका निरीक्षण करते रहे। पांचवें दिन सीढ़ियों से उतरता था राजमहल की फिर एक लक्ष मुद्राएं जीतकर और कालिदास ने उसे धक्का दे दिया। राजमहल की सीढ़ियां...धक्का खाया, सीढ़ियों से लौटता हुआ नीचे जा पहुंचा। खड़ा होकर चिल्लाया, नाराज हो गया। कालिदास ने कहा, क्षमा करें, और कोई और उपाय न था। यही आपकी मातृभाषा है। ___ उस क्षण भूल गया। उस क्षण कौवा प्रकट हो गया। अब जब कोई गाली देता है तो थोड़े ही किसी दूसरे की भाषा में गाली देता है। गाली देने का मजा ही नहीं दूसरे की भाषा में। __ मेरे एक मित्र एक अमरीकन युवती से विवाह कर लिये। वे मुझसे कहने लगे, दो बातों में बड़ी अड़चन होती है। झगड़ो, तब गड़बड़ होती है; तब मजा नहीं आता। तब तो दिल होता है कि अपनी मातृभाषा में ही...। मगर वह मजा नहीं आता। और या प्रेम की कुछ गहराइयों में उतरो, तब फिर अड़चन हो जाती। जब कोई प्रेम की गहराई हो तब कोई चाहता है उसी भाषा में बोलो, जो तुम्हारी श्वास-श्वास में रम गई है। या जब क्रोध की गहराई हो तब भी। प्रेम में और युद्ध में मातृभाषा। बीच में कोई भी भाषा चल सकती है। ___ कालिदास ने कहा, और कोई उपाय न था, क्षमा करें। धक्का देना पड़ा। आप को चोट लग गई हो तो माफ करें, लेकिन यही आपकी मातृभाषा है। और वही मातृभाषा थी।
अभ्यास से हम स्वभाव के ऊपर आरोपण करते हैं।
अष्टावक्र कह रहे हैं, स्वभाव में डूब जाना ही सुख है। इसलिए सुख का तो कोई अभ्यास नहीं हो सकता। तुम जो भी अभ्यास करोगे उससे दुख ही पाओगे। अभ्यास मात्र दुख लाता है, क्योंकि अभ्यास मात्र पाखंड लाता है। इसलिए बड़ा अदभुत सूत्र है :
आत्मानं तं न जानन्ति।
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अष्टावक्र: महागीता भाग-5